Book Title: Madras aur Maisur Prant ke Prachin Jain Smarak
Author(s): Mulchand Kishandas Kapadia
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 11
________________ काव्यमें ४०० पद हैं जिन्हें भिन्न२ चारसौ जैनाचार्योंने रचा है। डाक्टर पोपने इस काव्यको ‘वेल्लार वेदम्' अर्थात् किसानोंका वेद कहा है । इस काव्यके पदों का आजतक तामिल देशके घर में प्रचार है । इस काव्यमें कलभ्रोंके जैनी होने व जैन और ब्राह्मण धर्मोके बीच बढ़ते हुए विद्वेषके उल्लेख पाये जाते हैं। ___ कलभ्रोंके आक्रमणसे शैवधर्मके विरुद्ध जैनधर्मकी कुछ कालके जैनधर्मकी कमजरियां, लिये रक्षा हो गई पर यह थोड़े ही समयके शैव और वैष्णवोंकी लिये थी। इस समय जैनधर्मके पालनमें कुछ वृद्धि। ऐमी कमजोरियां आ चली थीं जिनके कारण शैव धर्मको बढ़नेका अच्छा अवसर मिल गया। श्रीयुक्त रामस्वामी अय्यन्गारजी अपने इतिहासमें लिखते हैं कि छठवीं शताब्दिके लगभग “जैनधर्मकी मृदुल आज्ञायें प्रतिदिनके जीवन के लिये बहुत कड़ी और कष्टप्रद होगई थीं। जैनियोंकी दूसरोंसे पृथक् बुद्धि और देशकालके अनुकूल परिवर्तनोंके अभावके कारण वे हंसी और घृणाकी दृष्टिसे देखे जाने लगे। अब वे केवल राजशक्ति द्वारा अपने प्रभावको स्थिर रख सक्ते थे। तामिलदेशके लोग अब हार्दिक विश्वासके साथ मैनधर्मको स्वीकार नहीं करते थे।"* जिस धर्मके प्रतिपालनमें देशकालानुसार परिवर्तन नहीं किये जाते वह धर्म कभी अधिक "The mild teachings of the Jain system had become very rigorous and exacting in ther application 10 daily life. The exclusiveness of the Jain; and their lackaf adoptability to circumstances roon renlered them objects of contempt and ridicule and it was only with the help of state patronage that they were able to make their iniluence felt. No longer did the Tamilians embrace the Jain faith out of open conviction.'

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