Book Title: Madras aur Maisur Prant ke Prachin Jain Smarak
Author(s): Mulchand Kishandas Kapadia
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 9
________________ ( ७ ) कुरल काव्यकी सत्ता से ही सिद्ध होता है कि ईस्वी सन्के प्रारम्भ में जैनधर्मके उदार सिद्धान्तों का तामिल देशमें अच्छा आदर होता था । फ्रेजर साहवने अपने इतिहासमें कहा है कि वह जैनियोंके ही प्रयत्नका फल था कि दक्षिण भारतमें नया आदर्श, नया साहित्य, नवीन आचार विचार और नृतन भाषाशैली प्रगट हुई । एलाचार्य अपर नाम कुन्दकुन्दाचार्य के सम्बंध में यह भी कथन मिलता है कि उन्होंने अपने प्राकृत ग्रन्थ ( प्राभृतत्रय) महाराजः शिवकुमार के सम्बोधनार्थ रचे थे । प्रोफेसर के ० बी० पाठक इन शिवकुमार महाराजको एक प्राचीन कदम्बनरेश श्रीविजय शिवमृगेशर्मा सिद्ध करते हैं किंतु प्रोफेसर ए० चक्रवर्तीने इन्हें कांचीके नरेश व शिवस्कन्दवर्मा सिद्ध किया है । इनका उल्लेख एक ताम्रपत्र में पाया जाता है जो प्राकृत भाषामें है और जो अन्य कुछ विशेषताओंसे भी जैनधर्मसे सम्बन्ध रखनेवाला सिद्ध होता है । 'कुरल' के रचनाकालके पश्चात् तामिल देशमें साहित्यका खूब प्रसार हुआ और इसमें जैनियों का भाग विशेष रहा। तामिल भाषाके प्रसिद्ध पौराणिक काव्य 'सिलप्पदिकारम ' और ' मणिमेकले ' में जैन के अनेक उल्लेख हैं जिनसे सिद्ध होता है कि उस देशमें उस समय जैनधर्म ही सर्वश्रेत्र और सर्वमान्य धर्म था । ये उल्लेख यह भी सिद्ध करते हैं कि जैनधर्मको चोल और पाण्ड्य नरेशोंका अच्छा आश्रय मिला था और राजवंशके अनेक पुरुष और महिलाओंने जैनधर्मको अपनाया था। सारा तामिल देश जैनमुनियों और आकाओं के आश्रमोंसे भरा हुवा था । नगरसे बाहर चौराहों पर मुनियोंके आश्रम रहा करते थे और समीप ही आर्जिकाओंके जुदे

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