Book Title: Launkagacchha aur Sthanakvasi
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Kalyanvijayji

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Page 10
________________ पट्टावली-पराग से विरुद्ध होकर उनके सामने "दया-धर्म के नाम से अपना मूर्तिपूजा विरोधी मत स्थापित किया था" और २२ वर्ष तक उन्होंने महेता लखमसी के सहकार से उसका प्रचार किया। सं० १५३२ में अपने पीछे भागजी को छोड़कर लौंका परलोकवासी हुए। भारगजी ने साधु का वेश लौकाशाह के जीवनकाल में धारण किया था या उनके स्वर्गवास के बाद ? इसमें दो मत प्रतीत होते हैं। उक्त "दया-धर्म चौपाई ' में लौका यति भानुचन्द्रजी ने सं० १५३२ में लौंकाशाह का स्वर्गवास माना है। लौकाशाह ने खुद ने दीक्षा नहीं ली पर भारणा ने वेष-धारण किया था ऐसा चौपाई में लिखा है। इसके विपरीत लोकागच्छ के यति केशवजी-कृत लौंकाशाह के सिलोके में लौंका द्वारा सं० १५३३ में भारगजी को दीक्षा देने और उसी वर्ष में लौंका के स्वर्गवास प्राप्त करने का लिखा है। केशवषि-कृत लौंकाशाहसिलोके में लेखक ने कुछ ऐतिहासिक बातें भी लिखी हैं इसलिए सिलोका के माधार से लौकामत को कुछ बातें लिखते हैं सौराष्ट्र में नागनेरा नदी के तट पर पाए एक गाव में हरिचन्द्र नाम का एक सेठ रहता था। उसको स्त्री का नाम मूगोबाई था। पूनमोया गच्छ के गुरु को सेवा से पीर शय्यद के माशीर्वाद से सं० १४७७ में उनके एक पुत्र हुआ जिसका नाम "लक्खा" दिया गया। लक्खा ज्ञानसागर गुरु की सेवा करता हुआ पढ़-लिखकर "लहिया" बना और वहीं पुस्तक लिखने का काम करने लगा। इस कार्य में लक्खा को द्रव्य की प्राप्ति होती थी, श्रत की भक्ति होती थी, और ज्ञान-शक्ति भी बढ़ती थी। आगम लिखतेलिखते उसके मन में शंका उत्पन्न हुई कि "पागम में कहीं भी दान देने का विधान नहीं दीखता, प्रतिमा-पूजा, प्रतिक्रमण, सामायिक मौर पौषध भी मूल सूत्रों में कम दीखता है।" राजा श्रेरिणक, कुरिणक, प्रदेशी तथा तु गिया नगरो के श्रावक जो तत्वगवेषी थे उनमें से किसी ने प्रतिक्रमण नहीं किया, न किसी को दान दिया। सामायिक और पूजा एक ठट्ठा है, मौर यतियों की चलाई हुई यह पोल है, प्रतिमा-पूजा बड़ा सन्ताप है, इसको करके हम धर्म के नाम पर थप्पड़ खाते हैं। लक्खा को लोग "लुम्पक" कहते हैं सो ठीक ही है, क्योंकि वह प्रविधि का लोप करने वाला है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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