Book Title: Launkagacchha aur Sthanakvasi
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Kalyanvijayji

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Page 69
________________ पट्टावली पराग ६७ "अरिहन्तचेत्य" और "अन्य तीर्थिक परिगृहीत परिहन्त चेत्यों" का प्रसंग प्राता था । (७) राजप्रश्नीय सूत्रों में सूर्याभदेव के विमान में रहे हुए सिद्धायतन में जिनप्रतिमाओं का वर्णन और सूर्याभदेव द्वारा किये हुए उन प्रतिमानों के पूजन का वर्णन सम्पूर्ण हटा दिया है । (८) जीवाभियम सूत्र में किये गए विजयदेव की राजधानी के सिद्धायतन तथा जिनप्रतिमानों का, नन्दीश्वर द्वीप के जिनचत्यों का रुचक तथा कुण्डल द्वीप के जिनचंत्यों का वर्णन निकाल दिया गया है। श्री जीवाभिगम की तीसरी प्रतिपत्ति के द्वितीय उद्देश में विरुद्ध जाने वाला जो पाठ था उसको हटा दिया है । (E) इसी प्रकार जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति प्रादि सूत्रों में पाने वाले सिद्धायतन कूटों में से "प्रायतन" शब्द को हटाकर "सिद्धकूट" ऐसा नाम रक्खा है । (१०) वहार-सूत्र के प्रथम उद्देशक के ३७ में सूत्र के द्वितीय भाग में माने वाले "भाविजिनचे इन" शब्द को हटा दिया है । उपर्युक्त सभी पाठ स्थानकवासी साधु धर्मसिंहजी से लगाकर बीसवीं सदी के स्थानकवासी साधु श्री प्रमोलक ऋषिजी ने ३२ सूत्रों को भाषान्तर के साथ छपवाकर प्रकाशित करवाया तब तक सूत्रों में विद्यमान थे । गतवर्ष सं० २०१६ के शीतकाल में जब हमने श्री पुप्फभिक्खू सम्पादित " सुत्तागमे " नामक जैनसूत्रों के दोनों अंश पढ़े तो ज्ञात हुआ कि सूत्रों के इस नवीन प्रकाशन में श्री फूलचन्दजी (पुप्फभिक्खू) ने बहुत ही बोलमाल किया है। सूत्रों के पाठ के पाठ निकालकर मूर्तिविरोधियों के लिए मार्ग निष्कण्टक बनाया है । मैंने प्रस्तुत सूत्रों के सम्पादन में की गई काटछांट के विषय में स्थानकवासी श्री जैनसंघ सहमत है या नहीं, यह जानने के लिए एक छोटा सा लेख तैयार कर "जनवाणी" कार्यालय जयपुर (राजस्थान) तथा चांदनी चौक देहली नं० ६ "जेनप्रकाश" कार्यालय को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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