Book Title: Launkagacchha aur Sthanakvasi
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Kalyanvijayji

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Page 71
________________ पट्टावली-पराग ६९ चल्योहार" पुस्तक तथा श्री प्रमोसंकऋषिजी द्वारा प्रकाशित ३२ सूत्रों में से भी कतिपय सूत्र पढ़े थे। यह सब होने पर भी स्थानकवासी सम्प्रदाय के विरुद्ध लिखने की मेरी भावना नहीं हुई । यद्यपि कई स्थानकवासी विद्वानों ने अपने मत के बाधक होने वाले सूत्र-पाठों के कुछ शब्दों के मर्थ जरूर बदले थे, परन्तु सूत्रों में से बाषक पाठों को किसी ने हटाया नहीं था। लौकागच्छ को उत्पत्ति से लगभग पौने पांच सौ वर्षों के बाद श्री पुप्फभिक्खू तथा इनके शिष्य-प्रशिष्यों ने उन बाधक पाठों पर सर्वप्रथम कैंची चलाई है, यह जान कर मन में प्रपार ग्लानि हुई। मैं जानता था कि स्थानकवासी सम्प्रदाय के साथ मेरा सद्भाव है, वैसा ही बना रहेगा, परन्तु पुप्फभिक्खू के उक्त कार्य से मेरे दिल पर जो आघात पहुँचा है, वह सदा के लिए अमिट रहेगा। भगवतीसूत्र, ज्ञाताधर्मकथांग, उपासकदशांग, विपाकसूत्र, प्रोपपातिक, राजप्रश्नीय ,जीवाभिगम, जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति, व्यवहारसूत्र मादि में जहां-जहां जिनप्रतिमा-पूजन. जिनचंत्यवन्दन, सिद्धायतन, मुहपत्ति बांधने के विरुद्ध जो जो सूत्रप.ठ थे, उनका सफाया करके श्री भिक्खूजी ने स्थानकवासी सम्प्र. दाय को निरापद बनाने के लिए एक मप्रामाणिक भोर कापुरुपोचित कार्य किया है, इसमें कोई शंका नहीं, परन्तु इस कार्य के सम्बन्ध में मैं यह जानना चाहता हूं कि “सुतागमे" रूपवाने में सहायता देने वाले गृहस्थ और सुत्तागमें पर अच्छी-अच्छी सम्मतियां प्रदान करने वाले विद्वान् मुनिवयं मेरे इस प्रश्न का उत्तर देने का कष्ट करेंगे कि इस कार्य में वे स्वयं सहमत हैं या नहीं ? उपर्युक्त मेरा लेख छपने के वाद "अखिल भारत स्थानकवासी जैन कफ्रेिन्स" के माननीय मन्त्री पोर इस संस्था के गुजराती साप्ताहिक मुखपत्र "न-प्रकाश" के सम्पादक श्रीयुत् खीमचन्दमाई मगनलाल बोहरा द्वारा "न" पत्र के सम्पादक पर तारीख १-५-६२ को लिखे गये पत्र में लिखा था कि - "सुतागमें" पुस्तक श्री पुप्फभिक्खू महाराज का खानगी प्रकाशन है, जिसके साथ "श्री वर्द्धमान स्थानकवासी जैन श्रमणसघ'' भषवा "अखिल भारतीय स्थानकवासी जैन कॉन्फ्रेन्स" का कोई सम्बन्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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