Book Title: Launkagacchha aur Sthanakvasi
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Kalyanvijayji

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Page 84
________________ पट्टावली-पराग यह पंचांगी तीर्थकर भाषित मागमों का खरा अर्थ बता सकती है । मूल सूत्र के ऊपर उसी भाषा में प्रथवा तो संस्कृत प्रादि अन्य भाषामों द्वारा सूत्रों का जो भाव स्पष्ट किया जाता है, उसको संक्षेप में "मर्थ" कहते हैं । सूत्र का अर्थ ही पद्यों में स्वकर प्रकरणों द्वारा समझाया जाता है उसको "ग्रन्थ' कहते हैं, सूत्रों में प्रकट रूप से नहीं बंधे हुए और लक्षणा. व्यंजनामों से उपस्थित होने वाले अर्थों को लेकर सूत्रोक्त-विषयों का जो शंका-समाधान-पूर्वक ऊहापोह करने वाला गाथात्मक निबन्ध होता है वह "नियुक्ति" नाम से व्यवहृत होता है, तथा सूत्रोक्त विषयों को सुगमतापूर्वक याद करने के लिए मध्याय, शतक, उद्देशक मादि प्रकरणों की भादि में उनमें वरिणत विषयों का सूचित करने वाली गाथानों का संग्रह बनाया जाता था, उसको "संग्रहणी" के नाम से पहिचानते हैं। माजकल सूत्रों पर जो प्राकृत चूणियां, संस्कृत टीकाएं मादि व्याख्याएं हैं, इनको प्राचीन परिभाषा के अनुसार "अर्थ" कह सकते हैं । सूत्र तथा अर्थ में व्यक्त किये गये विषयों को लेकर प्राचीनकाल में गायाबद्ध निर्मित भाष्यों को भी प्राचीन परिभाषा के अनुसार "ग्रन्थ" कहना चाहिए। भद्रबाहु मादि अनेक श्रुतघरों ने आवश्यक, दशवकालिक मादि सूत्रों के ऊपर तकंशली से गाथाबद्ध निबन्ध लिखे हैं, उन्हें भाज भी "नियुक्ति" कहा जाता है। "भगवती", "प्रज्ञापना" मादि के कतिपय अध्यायों की मादि में अध्यायोक्त विषय का सूचन करने वाली गापाएं दृष्टिगोचर होती हैं इनका पारिभाषिक नाम "संग्रहणी" है। भगवती-सूत्र के प्रथम शतक के प्रारम्भ में ऐसी संग्रहणी गाथा भाई तब भिक्षु महोदय ने पुस्तक के नीचे पाद-टीका के रूप में उसे छोटे टाइपों में लिया, परन्तु बाद में भिक्षु महोदय की समझ ठिकाने भाई और मागे की तमाम संग्रहणी पाथाएं मूल सूत्र के साथ ही रक्खीं। सम्प्रदायानभिज्ञ व्यक्ति अपनी समझ से प्राचीन साहित्य में संशोधन करते हुए किस प्रकार सत्यमार्ग को भूलते हैं, इस बात का भिक्षु महोदय ने एक उदाहरण उपस्थित किया है । भिक्षुत्रितय मागे लिखता है - "इसके बाद युग ने करवट बदली मोर उसी कटाकटी के समय धर्मप्रारण लोकाशाह जैसे क्रान्तिकारी पुरुष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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