Book Title: Launkagacchha aur Sthanakvasi
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Kalyanvijayji

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Page 89
________________ पट्टावली -पराग स्थविरों में चतुर्दश पूर्वघर भी हो सकते है और सम्पूर्ण दशपूबंधर भी हो सकते हैं, इन घरों की कृतियां भागमों में परिमाणित होती हैं, तब इन से निम्न कोटि के पूर्वधरों की कृतियां सूव्याख्यांग या प्रकारक कहलाते हैं भोर उनमें द्रव्य, क्षेत्र, काल के अनुसार पढ़ने वालों के हितार्थ सिद्धान्त मर्यादा के बाहर नहीं जाने वाले उपयुक्त परिवर्तन भी होते रहते हैं, इस प्रकार के परिवर्तन ३२ सूत्रों में भी पर्याप्त मात्रा में हुए है, परन्तु लका के अनपढ धनुयायियों को उनका पता नहीं है । लोका के अनुयायियों में प्रचलित सैकड़ों ऐसी बातें हैं जो ३२ भागमों में नहीं हैं और उन्हें वे सच्ची मानते हैं। तव कई बातें उनमें ऐसी भी देखो जाती हैं जो उनके मान्य श्रागमों से भी विरुद्ध हैं, इसका कारण मात्र इस समाज में वास्तविक तलस्पर्शी ज्ञान का प्रभाव है । ८७ व्याकरण व्याधिकरण है : भाज से कोई ५० वर्ष पहले लुंकामत के अनुयायी साधुम्रों को कहते सुना है कि "व्याकरण में क्या रक्खा है, व्याकरण तो व्याषिकरण है ।" स्थानकवासी सों के उपर्युक्त उद्गारों का खास कारण था सत्रहवीं शती में लुकागच्छ के प्राचार्य मेघजी ऋषि ने अपना गच्छ छोड़कर तपागच्छ में दीक्षित होने को घटना । इस घटना के बाद लुं कामच्छ वालों ने व्याकरण का पढ़ना खतरनाक समझा प्रोर अपने पाठ्यक्रम में से उसको निकाल दिया था, यही कारण है कि बाद के लौकागच्छ के प्राचार्य, यति " र स्थानकवासी साधुत्रों के बनाये हुए संस्कृत, प्राकृत प्रादि के ग्रन्थ दृष्टिगोचर नहीं होते " समक्तिमार" के कर्त्ता ऋषि जेठमलजी जैसे ग्रग्रग. मी स्थानकवासी सा भी सूत्रों पर लिखे हुए टिवों मात्र के आधार से अपना काम चलाते थे, यहो कारण है कि भौगोलिक आदि की आवश्यक बातों में भी वे प्रज्ञान रहते थे, इस विषय में हम "समकितसार" का एक फिकरा उद्धृत करके पाठकों को दिखाएगे कि उन्नीसवीं शती तक के लोकागच्छ के वंशज कितने प्रबोध होते थे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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