Book Title: Launkagacchha aur Sthanakvasi
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Kalyanvijayji

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Page 74
________________ ७२ पट्टावली - पराग जाता था उस स्थान पर लोग चबूतरा मादि कुछ स्मारक बनाते थे, जो "चैत्य" कहलाता था । इस प्रकार "चिता" शब्द की निष्पत्ति बताने वाले विद्वान् व्या कररण- शास्त्र के अनजान मालूम होते हैं । "विता " शब्द से "चैत्य" नहीं बनता पर "चंत" शब्द बनता है । माज से लगभग ५ हजार वर्ष पहले के वैदिक धर्म को मानने वाले सवणं भारतीय लोग मग्निपूजक थे, उन प्रत्येक के घरों में पवित्र भग्नि को रखने के तीन-तीन कुण्ड होते थे, उन कुण्डों में अग्नि की जो स्थापना होती थी उसको "प्रग्निचित्या" कहते थे । सैकड़ों वर्षों के बाद "प्रग्निचित्या" शब्द में से "अग्नि" शब्द तिरोहित होकर व्यवहार में केवल "चित्या" शब्द ही रह गया था। भाज से लगभग २४०० वर्ष पहले के प्रसिद्ध वैयाकरण श्री पाणिनिऋषि ने अपने व्याकररण में व्यवहार में प्रचलित "चित्या" शब्द को ज्यों का त्यों रखकर उसको स्पष्ट करने वाला उसको पर्याय शब्द "भग्निचित्या" को उसके साथ जोड़कर "चित्याग्निचित्ये" ३ । १ ॥ ३२, यह सूत्र बना डाला, इसी प्रग्निचयनवाचक "चित्या" शब्द से "चंत्य' शब्द को निष्पत्ति हुई, जिसका अर्थ होता है - "पवित्र भग्नि, पवित्र देवस्थान, पवित्र देवमूर्ति और पवित्र वृक्ष" इन सब मर्थो में "चेत्य" शब्द प्रचलित हो गया और आज भी प्रचलित है । जिनचत्य का अर्थ जिन का पवित्र स्थान अथवा जिन की पवित्र प्रतिमा, यह ममाज भी कोथों से ज्ञात होता है । जिस वृक्ष के नीचे मेटकर जिन ने धर्मोपदेश किया वह वृक्ष भी श्रीजिन चैत्य-वृक्ष कहलाने लगा और कोशकारों ने उसी के माधार से " चैत्य जिनौ कस्तदुबिम्बं चेत्यो जिनसभातरुः " इस प्रकार अपने कोशों में स्थान दिया । But कौटिल्य अर्थशास्त्र जो लगभग २३०० वर्ष पहले का राजकीय न्याय- शास्त्र है, उसमें भी झमुक वृक्षों को "संत्यवृक्ष" माना है और उन पवित्र वृक्षों के काटने वालों तथा उसके प्रास-पास गन्दगी करने वालों के लिए दण्डविधान किया है ।" नगर के निकटवर्ती भूमि-भागों को देवताम्रों के नामों पर छोड़कर उनमें प्रमुक देवों के मन्दिर बना दिये जाते थे और उन भूमि-भागों के नाम उन्हीं देवों के नाम से प्रसिद्ध होते थे । जैसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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