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पट्टावली -पराग
श्री पुप्फभिक्खू सुमित्तभिक्खू मोर जिषचन्दभिक्खू यह त्रितय " सुत्तागमे" के सम्पादन में एक दूसरे का सहकारी होने से भागे हम इनका उल्लेख " भिक्षुत्रितय" के नाम से करेंगे ।
पुस्तक की प्रस्तावना में "भागमों की भाषा" नामक शीर्षक के नीचे लिखा है
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"देवगिरिण क्षमाश्रमण ने श्रागमों को लिपिबद्ध किया, इतने समय के बाद लिखे जाने पर भी भाषा की प्राचीनता में कमी नहीं भाई ।"
देवगिरिण क्षमाश्रमरण के समय में भाषा की प्राचीनता में कमी नहीं माई, यह कहने वाले भिक्षुत्रितय को प्रथम प्राचीन भौर अर्वाचीन अर्द्धमागधी भाषा में क्या अन्तर है, यह समझ लेना चाहिए था । श्रागमों में प्राचारांग और सूत्रकृतांग हैं शोर भागमों में विपाक और प्रश्न व्याकरण भी हैं, इन सूत्रों की भाषानों का भी पारस्परिक अन्तर समझ लिया होता तो वे "प्राचीनता में कमी नहीं हुई' यह कहने का साहस नहीं करते ।
आचारांग तथा सूत्रकृतांग सूत्र चाज भी भ्रपने उसी मूल रूप में वर्तमान हैं, जो रूप उनके लिखे जाने के मोय्यं समय में था । इनके भागे के स्थानांग मादि सभी अंग सूत्रों में भिन्न-भिन्न वाचनाम्रों के समय में थोड़ा थोड़ा परिवर्तन चोर संक्षेप होता रहा हैं। स्थानांग मादि नव अंग सूत्रों में दूसरी वाचना के समय में स्कन्दिलाचार्थ की प्रमुखता में सूत्रों का जो स्वरूप निर्धारित हुआ था, वह भाज तक टिका हुमा है। देवद्विगरि क्षमाश्रमण के समय में जो पुस्तकालेखन हुमा उसमें मुख्यता माथुरी और वालभी वाचनानुगत सूत्रों में चलते हुए पाठान्तरों का समन्वय करने की प्रवृत्ति को थी । देवद्धगरण ने तत्कालीन दोनों वाचनानुयायी श्रमरणसंघों की सम्मति से सूत्रों का समन्वय किया था, तत्कालीन प्रश्नव्याकरण में १०८ प्रश्न, १०८ अप्रश्न, १०८ प्रश्नाप्रश्न, जैसे अंगुष्ठ प्रश्नादि, बाहु-प्रश्नादि, प्रादर्शप्रश्नादि के उत्तरों का निरूपण था। इनके अतिरिक्त दूसरे भी श्रनेक विचित्र विद्याओं के प्रतिशय थे उनको तिरोहित करके वर्तमानकालीन
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