Book Title: Launkagacchha aur Sthanakvasi
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Kalyanvijayji

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Page 78
________________ ७६ पट्टावली - पराग पंचतंवर - पंचाश्रवमय प्रश्नव्याकरण बनाया मोर प्राचीन प्रश्न-व्याकरण के स्थान में रखा । भाषा की प्राचीनता प्रर्वाचीनता की मीमांसा करने वाला भिक्षुत्रितय यह बताएगा कि प्राचारांग, सूत्रकृतांग की भाषा में मौर मागे के नव मंगसूत्रों की भाषा में क्या मन्तर पड़ा है, चोर उनमें प्रयुक्त शब्दों तथा वाक्यों में कितना परिवर्तन हुआ है ? अंग्रेज विचारकों के अनुयायी बनकर जैन-मागमों की भाषा को महाराष्ट्रीय प्राकृत के असर वाली मानने के पहले उन्हें देशकाल - सम्बन्धी इतिहास जान लेना चावश्यक था। डा० हार्नले जैसे भग्रेजों की मपूर्ण शोध के रिपोर्टों को महत्त्व देकर जैन मुनियों के दक्षिण देश में जाने की बात जो दिगम्बर भट्टारकों की कल्पनामात्र है, सच्ची मानकर जैन-मागमों में दक्षिणात्य प्राकृत का सर मानंना निराधार है। न तो मोय्यं चन्द्रगुप्त के समय में जैनश्रमरण दक्षिण प्रदेश में गए थे, न उनकी पर्द्धमागधी सौत्र भाषा में दक्षिण भाषा का प्रसर हुआ या । जो दिगम्बर विद्वान् कुछ वर्षो पहले श्रुतघर भद्रबाहु स्वामी के चन्द्रगुप्त के साथ दक्षिण में जाने की बात करते थे वे सभी प्राज मानने लगे हैं कि दक्षिण में जाने वाले भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त दूसरे थे, श्रुतघर भद्रबाहु भोर मोय्यं सम्राट चन्द्रगुप्त नहीं, क्योंकि दिगम्बरों के ग्रन्थों में भद्रबाहु का भौर चंन्द्रगुप्त का दक्षिरण में जाना उज्जैनी नगरी से बताया है, पर उनका समय विक्रम को दूसरी शताब्दी में मनुमानित किया है । आज तो डा० ज्योतिप्रसाद जैन जैसे शायद ही कोई प्रति श्रद्धालु दिगम्बर विद्वान् श्र तकेवली भद्रबाहु के दक्षिण में जाने की बात कहने वाले मिलेंगे । श्रवणबेलगोल भादि दिगम्बरों के प्राचीन तीर्थो के शिलालेखों के प्रकाशित होने के बाद भब विद्वानों ने यह मान लिया है कि दक्षिण में जाने वाले भद्रबाहु श्रुतकेवली नहीं किन्तु दूसरे ज्योतिषी-भद्रबाहु हो सकते हैं। इसका कारण उनके प्राचीन तीर्थों में से जो शिलालेख मिल हैं वे सभी शक की पाठवीं शती मौर उसके बाद के हैं। हमारी खुद की मान्यता के अनुसार तो अधिक दिगम्बर साधुयों के दक्षिण में जाने सम्बन्धी दंतकथाएं सही हों, तो भी इनका समय विक्रम को छुट्टी शती के पहले का नहीं हो सकता । दिगम्बर-सम्प्रदाय की ग्रंथप्रशस्तियों तथा पट्टावलियों में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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