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पट्टावली पराण
(१६) मार्य रोहण (१७) पुष्यगिरि (१६) धरणीधर स्वामी (२०) शिवभूति (२२) मार्यनक्षत्र (२३) मार्यरक्ष (२५) जेहलविसन स्वामी (२६) संदिदत्र
(१८) युगमन्त्र (२१) प्रार्यभद्र (२४) नाग (२७) देवढि
पट्टावली लेखक यह परम्परा नन्दीसूत्र के माधार से लिखी बताते हैं जो गलत है। इस परम्परा के नामों में आर्य-महागिरि और प्रार्य-सुहस्ती को एक पट्ट पर माना है, तब प्रार्य सुहस्ती के बाद के नामों में से कोई भी नाम नन्दी में नहीं है, किन्तु पिछले सभी नाम कल्पसूत्र की स्थविरावली के हैं , इसमें दिया हुआ ११ गं सुप्रतिबुद्ध का नाम अकेला नहीं किन्तु स्थविरावली में "सुस्थित सुप्रतिबुद्ध" ऐसे संयुक्त दो नाम हैं। आर्य-दिन्न के बाद इसमें वज्रस्वामी का नाम लिखा है जो गल्त है। आर्यदिन के बाद पट्टावली में प्रार्य सिंहगिरि का नाम है, बाद में उनके पट्टधर पत्रस्वामी है। वचस्वामी के शिष्य वनसेन के बाद इसमें प्रार्य-रोहण का नाम लिखा है जो गल्त है । आर्यरोहण पायंसुहस्ती के शिष्य थे, न कि वज्रसेन के, वज्रसेन के शिष्य का नाम 'आर्य-रथ' था। पुष्यगिरि के बाद इसमें १८३ पट्टधर का नाम "युगमन्त्र" लिखा है जो अशुद्ध है। पुष्यगिरि के उत्तराधिकारी का नाम आर्य "फल्गुमित्र" था, फल्गुमित्र के बाद के पट्टघर का नाम कल्पस्थविरावली में आर्य "धनगिरि" है जिसको विगाड़कर प्रस्तुत पट्टावली में "धरणीधर-स्वामी" लिखा है। आर्य-नक्षत्र के पट्टधर का नाम कल्पस्थविरावली में "आर्य-रक्ष" है, जिसके स्थान पर प्रस्तुत पट्टावलीकार ने "क्षत्र" ऐसा गल्त नाम लिखा है। प्रायनाग के बाद "कल्पस्थविरावली" में "जेहिल" मोर इसके बाद "विष्णु" का नम्बर माता है, तब प्रस्तुत पट्टावली में उक्त दोनों नामों को एक ही नम्बर के नीचे रख लिया है। विष्णु के बाद कल्पस्थविरावली में "पार्यकालक" का नम्बर है, तब प्रस्तुत पट्टावली में इसके स्थान पर "सढिल" यह नाम है जो शाण्डिल्य का उपभ्रंश है । शाण्डिल्य देवद्धिगरिण के पूर्ववर्ती भाचार्य थे, जबकि पट्टावली लेखक विष्णु के बाद के अनेक आचार्यों के नाम छोड़कर देवदिगरिण के समीपवर्ती शाण्डिल्य का नाम खींच लाया है, इसके बाद
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