Book Title: Launkagacchha aur Sthanakvasi
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Kalyanvijayji

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Page 38
________________ ३६ पट्टावली पराग का लोप भादि दोषों के कारण शिथिलाचारी बताता है. मोर १७०६ में शा० लवजी की दीक्षा की बात कहता है । लवजी दीक्षा लेने के बाद अपने गुरु बजरंगजो को लौकागच्छ से निकालने का आग्रह करते हैं, और इनके इन्कार करने पर भी ऋ० लवजी, ऋ० भाजी और ऋ० सुखंजी के साथ लौकागच्छ को छोड़कर निकल जाते हैं, और तीनों फिर दीक्षा लेते हैं और लोग उनको "दुढ़िया" यह नाम देते हैं। पट्टावलोकार ने उक्त त्रिपुटी को दीक्षा तो लिवाली, पर दीक्षा-दाता गुरु कौन थे ? यह नहीं लिखा। अपने हाथ से कल्पित वेश पहिन लेना यह दीक्षा नहीं स्वांग होता है । दीक्षा तो दीक्षाधारी अधिकारी-गुरु से ही प्राप्त होती है, न कि वेश-मात्र धारण करने से । लौकागच्छ के साधु स्वयं गृहस्थ-गुरु के चेले थे तो उनमें से निकलने वाले लवजी आदि नया वेश धारण करने से नये दीक्षित नहीं बन सकते। पट्टावली के अन्त में लेखक ऋषि लवजी के मुंह से . कहलाता है - "अरे भाई ! पांचवां पारा है, ऐसी कठिनाई हम से नहीं पलेगी, ऐसा करने से हमारा टोला बिखर जाय । पट्टावलीकार ने पूर्व के पत्र में तो लवजी को महात्यागी और लौकागच्छ का त्याग करके फिर दीक्षा लेने वाला बताया और आगे जाकर उन्हीं लवजी के मुंह से पंचम आरे के नाम से शिथिलाचार को निभाने की बात कहलाता है। यह क्या पट्टावली-लेखक का ढंग है ! एक व्यक्ति को खूब ऊंचा चढ़ाकर दूसरे ही क्षण में उसे नीचे गिराना यह समझदार लेखक का काम नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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