Book Title: Launkagacchha aur Sthanakvasi
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Kalyanvijayji

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Page 50
________________ पट्टावली -पराग उत्तर पक्ष की युक्तियों को सुनकर पं० वीरविजयजी प्रत्युत्तर देते हुए बोले "तुम ढुण्डक लोगों का प्रवाह जानवरों के जैसा है, जिस प्रकार जानवरों के टोले को एक प्रादमी जिघर ले जाना चाहता है, उसी तरफ ले जाता है, वही दशा तुम्हारी हैं, तुम्हारे भादि गुरु लौका ने किसी को गुरु नहीं किया और मूर्तिपूजा आदि का विरोध कर घपना मन स्थापित किया, उसी प्रकार तुमने भी किसी भी ज्ञानी गुरु के विना उनको बातों को लेकर उसके पन्य का समर्थन किया है, जिससे एक को साघते हो और दस टूटने हैं । प्रतिमा में गुरण नहीं कहते हो तो उसमें दोष भी तो नहीं है और उसके पूजने से भक्तिगुण की जो पुष्टि होती है वह प्रत्यक्ष है । सूत्र- सिद्धान्त में अरिहन्त भगवन्त ने जिनप्रतिमा पूजनीय कही है श्राश्रव द्वार में प्रतिमापूजा वालों को मन्दबुद्धि कहा है- वह प्रतिमा जिन की नहीं, परन्तु नाग भूत आदि को समझना चाहिए ऐसा "अंगविद्या" नामक ग्रन्थ में कहा है । इतना ही नहीं वल्कि उसी "प्रश्नव्याकरण" अंग के सवरद्वार से जिनप्रतिमा की प्रशंसा की है और पूजने वाले के कर्मों को निर्बल करने वाली बताई है । घट्ट अंग "ज्ञातासूत्र" में द्रौपदी के ठाठ के साथ पूजा करने का पाठ है, इसके अतिरिक्त विद्याचाररणमुनि जिनप्रतिमा वन्दन के लिए जाते हैं, ऐसा भगवती सूत्र में पाठ है । सूर्यामदेव के शाश्वत जिनप्रतिमाओं की पूजा करने का "राजप्रश्नीय" में विस्तृत वर्णन दिया हुआ है और "जीवाभिगम" सूत्र में विजयदेव ने जिनप्रतिमा की पूजा करने का वर्णन विस्तारपूर्वक लिखा है, इस प्रकार जिन-जिन सूत्रों में मूर्तिपूजा के पाठ थे वे निकालकर दिखाये जिस पर ढुण्ढक कुछ भी उत्तर नहीं न दे सके । आागे पं० वीरविजयजी ने कहा - जब स्त्रा ऋतुधर्म से अपवित्र बनती है, तब उसको "सूत्र - सिद्धान्त " पढ़ना तथा पुस्तकों को छूना तक शास्त्र में निषेध किया है । यह कह कर उन्होंने "ठाणाङ्ग" सूत्र का पाठ दिखाया, तब ढुण्ढकों ने राजसभा में मंजुर किया कि ऋतुकाल में स्त्री को शास्त्र पढ़ना जैन सिद्धान्त में वर्जित किया है । परन्तु यह बात शास्त्रार्थ के अन्तर्गत नही है हमारा विरोध प्रतिमा से है इसके उत्तर में वीरविजयजी ने कहा यज्ञ कराने वाला शयम्भव भट के नीचे से निकली हुई शान्तिनाथ की प्रतिमा को देखकर प्रतिबोध पाया, इसी प्रकार अनेक भव्य मनुष्यों ने जिनप्रतिमा के दर्शन से जैनधर्म यू ४८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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