Book Title: Launkagacchha aur Sthanakvasi
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Kalyanvijayji

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Page 61
________________ पट्टावली पराज नम्बर २० घां है, १३ वां नहीं, कोष्टक में श्रार्यदिन का नाम भी गलत लिखा है, भार्यदिन धायं सुहस्ती की परम्परा के स्थविर थे और इनका पट्ट नम्बर ११ वां था, १३ वां नहीं । ५९ १४ वें नम्बर में जीतघर स्वामी का नाम लिखा है, जो ठीक नहीं है, क्योंकि जोतघर विशेष नाम नहीं है, किन्तु १३ वें नम्बर के श्रायं शाण्डिल्य का विशेषण मात्र है । १५ वें नम्बर में श्रायं समुद्र का नाम दिया है पर श्रार्य समुद्र १४ वें नम्बर में हैं और आगे कोष्टक के श्री वज्रधर स्वामी ऐसा नाम लिखा है, यह भी यथार्थ नहीं है, क्योंकि इस नाम के कोई भी स्थविर हुए ही नहीं हैं । १६ वें नम्बर के आगे "वयर-स्वामी" लिखा है, जो गलत है, इस नम्बर के नन्दिलाचार्य स्थविर ही हुए हैं, इनके श्रागे वज्रशाख १, चन्द्रशाखा २, निवृत्तिशाखा ३ र ४ विद्याधरीशाखा नाम लिखे हैं, ये भो यथार्थ नहीं हैं । वज्रस्वामी से वाजीशाखा जरूर निकली है, "चन्द्र" नाम कुल का है शाखा का नहीं इसी तरह "निवृति" नहीं किन्तु "निवृति" नाम है और वह नाम शाखा का नहीं "कुल" का है, इसी तरह "विद्याघर" भी "कुल" का नाम है । शाखा का नहीं । 1 १७ वें नम्बर के आचार्य "रेवतगिरि" "श्री सायंरक्षित" और श्री "घरणीघर" इनमें से पहले और तीसरे नाम के कोई श्रुतवर हुए ही नहीं है और भार्य रक्षित हुए हैं, तो इनका नम्बर २० वां है, १७ वां नहीं । १५ वें धीर १६ वें नम्बर के भागे प्राचार्य "श्री सिंहगरिण" ओोर " स्थविर - स्वामी" ये नाम लिखे हैं, परन्तु दोनों नाम गलत है, क्योंकि इन नामों के कोई श्रुतघर हुए ही नहीं, सिहगरिण के धागे शिवभूति का नाम लिखा है, सो ठीक है परन्तु शिवभूति वाचक-वंश में नहीं किन्तु देवद्धि गरिए की पूर्वावली में है, यह बात लेखक को समझ लेना चाहिए थी । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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