Book Title: Launkagacchha aur Sthanakvasi
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Kalyanvijayji

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Page 45
________________ पट्टावली - पराग ४३ शाह शास्त्रार्थ होने का वर्ष १७८७ बताते हैं प्रौर मिति उसी वर्ष के पौष मास की १३ । शाह ने वर्ष-मिति की यह कल्पना पं० श्रीरविजयजी और ऋषि जेठमलजी के बीच हुए शास्त्रार्थ की यादगार में पं० उत्तमविजयजी द्वारा निर्मित "लूंपकलोप- तपगच्छ जयोत्पत्ति वर्णन रास" के - ऊपर से गढ़ी है, क्योंकि उत्तमविजयजी के बनाये हुए रास की समाप्ति में सं० १७८७ के वर्ष का भोर माघ मास का उल्लेख है । शाह ने उसी वर्ष को शास्त्रार्थ के फैसले का समय मान कर पौष शुक्ल १३ का दिन लिख दिया है पर वार नहीं लिखा, क्योंकि वार लिखने से लेख की कृत्रिमता तुरन्त पकड़ी जाने का भय था । शाह का यह फैसला उनके दिमाग की कल्पना मात्र है, यह बात निम्न लिखे विवरण से प्रमाणित होगी " समकितसार" के लेखक जेठमलजी लिखते हैं- श्री वर्द्धमान स्वामो मोक्ष गए तब चौथा श्रारा के ३ वर्ष प्रोर साढ़े आठ मास शेष थे । उसके बाद पांचवां ग्रारा लगा और पांचवे मारे के ४७० वर्ष तक वोय संवत् चला, उसके बाद विक्रमादित्य ने संवत्सर चलाया, जिसको आजकल १८६५ वर्ष हो चुके हैं।" शाह के जजमेन्ट के समय में अहमदाबाद में कम्पनी का राज्य हो चुका था और अंग्रेजी अदालत में ही अर्जी हुई और जजमेन्ट भी अंग्रेजी में लिखा गया था, फिर भो जजमेन्ट में अंग्रेजी तारीख न लिखकर पोष सुदि १३ लिखा है इसका अर्थ यही है कि उक्त जजमेन्ट उत्तमविजयजी के रास के आधार से शाह वाढीलाल ने लिखा है, जो कल्पित है यह निश्चित होता है । शाह शास्त्रार्थ के फैसले में लिखते हैं- "शास्त्रार्थं से वाकिफ होने के लिए जेठमलजी कृत समकितसार पढ़ना चाहिए,” यह शाह का दम्भ वाक्य और "समकितसार" के प्रचार के लिए लिखा है, वास्तव में जेठमलजी के "समकितसार" में वीरविजयजी के साथ होने वाले शास्त्रार्थ की सूचना तक भी नहीं है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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