Book Title: Launkagacchha aur Sthanakvasi
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Kalyanvijayji

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Page 43
________________ पट्टावली-पराग ४१ __"संस्कृत भाषा के अभ्यासी ऐसे भी साधु संघ में हैं, जिन्होंने एकएक दिन में पांच-पांच सौ व सहस्र-सहस्र श्लोकों की रचना की है।" ठीक तो है जिस संघ में प्रतिदिन पांच-पांच सौ और सहस्र-सहन श्लोक बनाने वाले साधु हुए हैं उस संघ में संस्कृत-साहित्य के तो भण्डार भी भर गए होंगे, परन्तु दुःख इतना ही है कि ऐसे संघ की तरफ से एक भी संस्कृत ग्रन्थ मुद्रित होकर प्रकाशित हुमा देखने में नहीं माया । लवजी के शिष्य सोमजी हुए। हरिदासजी के शिष्य वृन्दावनजी हुए। वृन्दावनजी के भवानीदासजी हुए। भवानीदासजी के शिष्य मलूकचन्दजी हुए। मलूकचन्दजी के शिष्य महासिंहजी हुए। महासिंहजी के शिष्य खुशालरामजी हुए। खुशालरामजी के शिष्य छजमलजी हुए। रामलालजी के शिष्य भमरसिंहजी हुए। अमरसिंहजी का शिष्य-परिवार भाजकल पंजाब में मुख बांध कर विचरता है। लवजी के शिष्यों का परिवार मालवा और गुजरात में विचरता है। "समकितसार" के कर्ता जेठमलजी धर्मदासजी के शिष्यों में से थे पौर उनके शाचरण ठीक न होने के कारण उनके चेले देवीचन्द और मोतीचन्द दोनों जन उनको छोड़ कर जोगराजजी के शिष्य हजारीमलजी के पास दिल्ली में भाकर रहे थे। ___ ऊपर हमने जो लौकामत की और स्थानकवासी लवजी की परम्परा लिखी है वह पूर्वोक्त अमोलकचन्दजी के हाथ से लिखी हुई ढुण्ढकमत की पट्टावली के ऊपर से लिखी है, इस विषय में बिस किसी को शंका हो, वह हस्तलिखित मूल प्रति को देख सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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