Book Title: Launkagacchha aur Sthanakvasi
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Kalyanvijayji

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Page 39
________________ दुरादक - मत की पट्टावली २. श्री प्रात्मारामजी महाराज के हाथ से लिखी हुई स्थानकवासियों की पट्टावली सम्यक्त्व शल्योद्धार के आधार से नीचे दी जाती है - पूज्य लेखक का कथन है कि "यह पट्टावली हमने अमरसिंहजी के परदादा श्री मुल्कचन्दजी के हाथ से लिखी हुई, ढुंढकपट्टावली के ऊपर से ली है ।" हमने सभी स्थानकवासियों की अन्यान्य पट्टावलियों की अपेक्षा से इसमें कुछ वास्तविकता देखकर यहां देना ठीक समझा है। पट्टावलीकार लिखते हैं कि " अहमदाबाद में रहने वाला लका नामक लेखक ज्ञानजी यति के उपाश्रय में उनके पुस्तक लिखकर अपनी आजीविका चलाता था, एक पुस्तक में से सात पांने उसने यों ही छोड़ दिए । यतिजी को मालूम हुआ कि लोंका ने जान बुझकर बेईमानी से पांने छोड़ दिये हैं, उसे फटकार कर उपाश्रय में से निकाल दिया और दूसरे पुस्तक लिखाने वालों को भी सूचित कर दिया कि इस लुच्चे लेखक लों का के पास कोई पुस्तक न लिखावें । " उक्त प्रकार से लोंका की आजीविका टूट जाने से वह जैन साधुनों का द्वेषी बन गया, पर अहमदाबाद में उसका कुछ नहीं चला, तब वह ग्रहमदाबाद से ४० कोस की दूरी पर आये हुए लोम्बड़ी गांव गया, वहां उसका मित्र लखमशी नामक राज्य का कार्यभारी रहता था । लौका ने लखमशी से कहा "भगवान् का मार्ग लुप्त हो गया है, लोग उल्टे मार्ग चलते है, मैंने अहमदाबाद में लोगों को सच्चा उपदेश किया, पर उसका परिणाम उल्टा माया, में तुम्हारे पास इसलिए माया हूं कि में सच्चे दयाधर्म की प्ररूपणा करूं और तुम मेरे सहायक बनों ।” लखमशी ने लों का को आश्वासन देते हुए कहा - खुशी से अपने राज्य में तुम दयाधर्म का प्रचार करो, मैं तुम्हारे खान-पान आदि की व्यवस्था कर दूंगा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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