Book Title: Launkagacchha aur Sthanakvasi
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Kalyanvijayji

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Page 33
________________ पट्टावली-पराग ३१ "पुस्तक भंडार में से पुस्तक निकाले तो कुछ पाने दीमक खा गया था, यह देख यति ने उनके पास गए हुए मेहता लुका को कहा - महेताजी। एक जैन मार्ग का काम है, महेता ने कहा - कहिये क्या काम है ? यति ने कहा - सिद्धान्त के पांने दीमक खा गया है, उन्हें लिख दो तो उपकार होगा, लोका ने उनका वचन मान लिया। यति ने "दशवकालिक" को प्रत लों का को दी। लौका ने मन में सोचा-वीतराग भाषित दयाघमं का मार्ग दशवकालिक में लिखे अनुसार है, आजकाल के वेषधारी इस आचार को छोड हिंसा की प्ररूपणा करते हैं, वे स्वय धर्म से दूर हैं इसलिए लोगों को शुद्धधर्म-मार्ग नहीं बताते, परन्तु इस समय इनको कुछ कहूंगा तो यानेंगे नहीं, इसलिए किसी भी प्रकार से पहले शास्त्र हस्तगत करलू तो भविष्य में उपकार होगा, यह सोचकर महेता लुका ने दशवकालिक को दो प्रतियां लिखी, एक अपने पास रखी, एक यति को दो । इस प्रकार सब शास्त्रों की दो-दो प्रतियां उतारी और एक-एक प्रति अपने पास रखकर खासा शास्त्र-संग्रह कर दिया। महेत' अपने घर पर सूत्र की प्ररूपणा करने लगा' बहुत से लोग उनके पास सुनने जाते और सुनकर दयाधर्म की प्ररूपणा करते। उस समय हटवारिणया के परिणक् शाह नागजी १, मोतीचन्दजी २, दुलीचन्दजी ३, शम्भुजी ४, और शम्भुजी के बेटा की बेटी मोहीबाई और मोहीबाई की माता इन सब ने मिलकर संघ निकाला। घाड़ो, गोड़े, ऊंट, बैल, इत्यादि साज सामान के साथ निकले परन्तु मार्ग में जलवृष्टि हो गई, जहां लोका महेता अपने मत का उपदेश करता था वहां यात्रिक पाए और लोका को वाणो सुनने लगे । लौका महेता भी बड़ी तत्परता से दयावर्म का प्रतिपादन करते थे। सारा यात्री संघ लुका महेता वाले गांव में पाया और वहां पड़ाव डालकर महेता की वाणी सुनने लगा, उस समय संघ के गुरु वेशधारी साधु ने सोचा - अगर संघ के लोग सिद्धान्त शंली सुनेंगे तो मागे चलेंगे नहीं और हमारी बात भी मानेंगे नहीं, यह विचार कर वेशधारी साधु संघनायक के पास पाया और कहने लगा -संघ के लोग खर्च और पानी से दुःखो हैं, तब संघनायक ने कहा - मार्ग में तो सजीव और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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