Book Title: Launkagacchha aur Sthanakvasi
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Kalyanvijayji

View full book text
Previous | Next

Page 34
________________ ३२ पट्टावली पराग हरिगलो के अंकुर निकल जाने से प्रयतना बहुत दोख रही है वास्ते अभी ठहरो ! इस पर द्रव्यलिंगी गुरु बोले - शाहजी धर्म के निमित्त होने वाली हिंसा को हिंसा नहीं माना, यह सुनकर संघवी ने सोचा कि लौका महेना के पास जो सुना था कि वेशधारी साधु अनाचारी हैं, छः काय की दया से हीन हैं, वह बात आज प्रत्यक्ष दीख रही है, द्रव्यलिंगी यति वापस लौट गया और संघ के साथ सिद्धान्त सुनता वहीं ठहरा, सुनते-सुनते उनमें से ४५ जनों को वैराग्य उत्पन्न हुप्रा और संयम लिया, उनके नाम - सर्वोजी, भारगोजी, नयनोजो, जगमोजी मादि थे, इस प्रकार ४५ साधु जिनमाग के दयाधर्म की प्ररूपणा करने लगे और अनेक जोवों ने दयाधर्म का स्वीकार किया, उस समय लोकाशाह ने पूछा तुम कैसे साधु कहलाते हो ? साधु बोले - महेताजी हमने तीर्थङ्कर का धर्ममार्ग प्रापसे पाया है, इमलिए हम “लौका साधु" कहलाते हैं और हमारा समुदाय “लौकागच्छ' कहलाता है । कल्पित कथा के प्रारंभ में "दशवकालिक" के पांने दीमक रवाने की बात कही गई है । और “दशवकालिक" की प्रति लौंका को देने का कहा है. अब विचारणीय बात यह है कि पुस्तक के पाने दीमक द्वारा नष्ट हो गये तो उसो "दशवकालिक" की प्रति के ऊपर से लौका ने दो प्रतियां कैसे लिखी ? क्योंकि लौका के पास तो पुस्तक भंडार था नहीं और लौका को लिखने के लिए पुस्तक देने वाले यतिजी ने उसे "दशवकालिक" की अखंडित प्रति देने का का सूचन तक नहीं है, केवल "दशवकालिक" ही नहीं यतिजो के पास से दूसरे भी सूत्र लिखने के लिए लौंका ले जाता था और उनकी एक-एक नकल अपने लिए लिखता था। यदि भण्डार के तमाम सूत्रों में दीमक ने नुकशान किया था और यतिजी भंडार के पुस्तकों को लिखवाते थे तो साथ में प्रखड़ित सूत्रों को प्रतियां देने की आवश्यकता थी, परन्तु इस कहानी से ऐसो बात प्रमारिणत नहीं होती अतः “लौकाशाह जिनमार्ग का काम समझकर सूत्रों की प्रतियां लिखते थे, यह कथन सत्यता से दूर है।" सत्य बात तो यह है कि लौंकाशाह लेखक का धन्धा करता था। मेहनताना देकर साधु उससे पुस्तक लिखवाते थे, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100