Book Title: Launkagacchha aur Sthanakvasi
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Kalyanvijayji

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Page 35
________________ पट्टावली-पराग ३३ उनमें से लोंका ने लिखवाने वाले की प्राज्ञा के बिना अपने लिए पुस्तक की एक-एक प्रति लिख ली हो तो असम्भव नहीं है, परन्तु एक बात विचारगीय यह है कि लौंका के समय में जैनसूत्रों पर टिब्बे नहीं बने थे। सूत्रों पर टिब्बे सर्वप्रथम पार्श्वचन्द्र उपाध्याय ने लिखे थे भोर पार्श्वचन्द्र का समय शाह लौका के बाद का है। लौका "संस्कृत" या "प्राकृत" भाषा का जानकार भी नहीं था फिर उसने सूत्रों की नकल करते-करते मूल सूत्रों का अगर उसकी पंचांगी का तात्पर्य कैसे समझा कि सूत्रों में साधु का प्राचार ऐसा है और साधु उसके अनुसार नहीं चलते हैं। सच बात तो यह है कि वह साधुओं के व्याख्यान सुना करता था, इस कारण से वह साधुओं के प्राचारों से परिचित था। वृद्ध पौषधशालिक आचार्य श्री ज्ञानचन्द्रसूरि का पुस्तक लेखन का कार्य लौकाशाह कर रहा था और इस व्यवसाय को लेकर ही ज्ञानचन्द्रसूरि ने लोंका को फिटकारा और लौंका ने साधुनों के पास न जाने की प्रतिज्ञा की थी और उनके प्राचार-विचार के सम्बन्ध में टोका-टिप्पणियां करने लगा था। लौकामत को कल्पित कहानी में दी गई, हटवारिणयां गांव के संघ की कहानी भी सरासर झूठो है। क्योंकि पहले तो "हटवाणिया" नामक कोई गांव ही मारवाड़ अथवा गुजरात में नहीं है, दूसरा चातुर्मास्य प्रागे लेकर संघ निकालने की पद्धति जनों में नहीं है, फिर लौंकाशाह के निकट पहुंचने के लगभग जलवृष्टि होना और वनस्पति के अंकुरों के उत्पन्न होने आदि की बातें केवल कल्पना-कल्पित हैं। विद्वान् साधुनों की विद्वत्तामयी धर्मदेशना सुनकर हजारों में से शायद ही कोई दीक्षा के लिये तैयार होता है। तब लोकाशाह के उपदेश से केवल यांत्रिक-संघ में से ४५ जनों के दोक्षा लेने की बात सफेद झूठ नहीं तो और क्या हो सकती है । लौकाशाह के थोड़े हो वर्षों के बाद होने वाले लौका भानुचन्द्रजी ऋषि और लौका केशवजी ऋषि अपनी रचनामों में लोकाशाह के अन्तिम समय में केवल एक भागजी की दीक्षा होने की बात लिखते हैं। तब बीसवीं शती का स्थानकवासी पट्टावलीकार ४५ बनों के दीक्षा की बात कहता है और लोकाशाह के द्वारा पुलवाता है कि "तुम कैसे साधु कहलाते हो ?" साधु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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