Book Title: Launkagacchha aur Sthanakvasi
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Kalyanvijayji

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Page 21
________________ केशवर्षि वर्णित लौकागच्छ की पडावली (९) भारगाजी ऋषि के पाट पर सुबुद्धिभद्र ऋषि हुए । भीमाजी स्वामी जगमाल ऋषि सर्वा स्वामी इस समय कुमति वोजा पापी निकला जिसने फिर जिन प्रतिमा की स्थापना की । सर्वा स्वामी के बाद-रूपजी । जीवाजी । कुंवरजी । श्रीमलजी ऋषि जो विचर रहे हैं, इन पूज्य के चरणों को प्रणाम करके केशव ने यह गुरुपरम्परा गाई है । उपर्युक्त लोकाशाह - सिलोका के लेख के श्री केशवजी ऋषि ने श्रीमल जी को अपना गुरु बताया है श्रोर श्रीमलजी लोकाशाह के आठवें पट्टधर श्री जीववि के तीन शिष्यों में से एक थे, इससे सिलोका के लेखक केशवजी सं. १६०० के भासपास के व्यक्ति होने चाहिए । इनसे २५-३० वर्ष पूर्ववर्ती लौका- मच्छीय यति भानुचन्द्रजी लोंका की मान्यता के सम्बन्ध में मन्दिर - मागियों की तरफ से होने वाले माक्षेपों का उत्तर देते हुए कहते हैं"लोका यतियों को नहीं मानता, लोका सामायिक, पौषध, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, जिनपूजा, दान नहीं मानता इत्यादि ।" क्या कहा ? लुका ने क्या उत्थान किया है ? वह तो दो बार से अधिक बार सामायिक करने, पवंदिन बिना पौषध करने, १२ व्रत बिना प्रतिक्रमण करने, आगार-सहित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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