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पट्टावली - पराग
प्रत्याख्यान करने घोर असंयत को दान देने का निषेध करता है । तब भानुचन्द्रजी से बाद में होने वाले केशवजी ऋषि मन्दिर - मार्गियों की तरफ से किये जाने वाले प्राक्षेपों का खण्डन न करके अपने लोकाशाह के सिलोका की गाथा १३, १४, १५ में उनका समर्थन करते हैं। वे कहते हैं- "दान देने में श्रागम साक्षी नहीं है । प्रतिमापूजा, प्रतिक्रमण, सामायिक और पौषध भी प्रागम में नहीं है । राजा श्रेणिक, कुणिक, प्रदेशी और तत्त्वगवेवक तुंगिया के श्रावकों में से किसी ने प्रतिक्रमण नहीं किया, न पर को दान दिया । सामायिक पूजा यह ठट्ठा है औौर यतियों की चलाई हुई पोल है, प्रतिमा-पूजा सन्ताप रूप है तो इसको करके हम धर्म को थप्पड़ क्यों लगाएं ? यति भानुचन्द्रजी और केशवजी ऋषि की इन परस्पर विरोधी बातों से मालूम होता है कि लोकाशाह की मान्यताओं के सम्बन्ध में होने वाले आक्षेप सत्य थे। यदि ऐसा नहीं होता तो केशवजी ऋषि उनका समर्थन नहीं करते, इसके विपरीत यति भानुचन्द्रजी ने इन प्राक्षेपजनक बातों का रूपान्तर करके बचाव किया है । इससे निशिचित होता है कि लौंका की प्रारम्भिक मान्यतानों के सम्बन्ध में लोंका के अनुयायी ऋषियों में ही बाद में दो मत हो गये थे, कुछ तो लोकाशाह के वचनों को ऋक्षरशः स्वीकार्य्यं मानते थे, तब कतिपय ऋषि उनको सापेक्ष बताते थे । कुछ भी हो एक बात तो निश्चित है कि कोई भी लोंका का अनुयायी लौंका के सम्बन्ध में पूरी जानकारी नहीं रखता था । यति भानुचन्द्रजी ने लौंका के सम्बन्ध में जो कुछ खास बातें लिखी हैं, केशवजी ऋषि ने अपने लों का सिलोका में उनसे बिल्कुल विपरीत लिखी हैं। का जन्म सं० १४५२ के वैशाख वदि १४ को लिखते हैं, उसका गांव लीम्बड़ी, जाति दशा श्रीमाली और माता-पिता के नाम शाह डुंगर और चूड़ा लिखते हैं तथा लोंका का परलोकवास १५३२ में हुमा बताते हैं । इसके विपरीत केशव ऋषि लौंका का गांव नागनेरा नदी के तट पर बताते हैं और माता पिता के नाम सेठ हरिचन्द्र और मूंगीबाई लिखते हैं, लौंका का नाम लखा लिखते हैं और उसका जन्म १४७७ में बताते हैं मोर लोका का स्वर्गवास सं० १५३३ में होना लिखते हैं । इस प्रकार लोकाशाह के निकटवर्ती अनुयायी ही उनके सम्बन्ध में एक-मत नहीं थे तो अन्य गच्छ
भानुचन्द्रजी लोंका
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