Book Title: Launkagacchha aur Sthanakvasi
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Kalyanvijayji

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Page 25
________________ पट्टावली -पराग २३ " x x x इतना इतिहास देखने के बाद मैं पढ़ने वालों का ध्यान एक बात पर खींचना चाहता हूं कि स्थानकवासी व साधुमार्गी जैन-धर्म का जब से पुनर्जन्म हुप्रा तब से यह धर्म अस्तित्व में प्राया भोर भाज तक यह जोर-शोर में था या नहीं ! अरे ! इसके तो कुछ नियम भी नहीं थे, यतियों से अलग हुए मोर मूर्तिपूजा को छोड़ा कि ढूंढिया हुए । × × × "3 " x x x मेरी मल्पबुद्धि के अनुसार इस तरकीब से जैन-धर्म का बड़ा भारी नुकसान हुआ, इन तीनों के तेरह सौ भेद हुए । xxx " ऊपर के विवरण से सिद्ध होता है कि भाज का स्थानकवासी - सम्प्रदाय लोकागच्छ का अनुयायी नहीं है, किन्तु लौंकागच्छ से बहिष्कृत धर्मदासजी लवजी तथा स्वयं वेशधारी धर्मसिंहजी का अनुयायी है, क्योंकि मुँह पर मुँहपत्ति बाँध कर रहना उपर्युक्त तीन सुधारकों का ही माचार है । लोकाशाह स्वयं श्रसंयत दान का निषेध करते थे, तब उक्त क्रियोद्धारक अभयदान का शास्त्रोक्त मतलब न समझ कर पशुओं, पक्षियों को उनके मालिकों को पैसा देकर छोड़ाने को अभयदान कहते थे । श्राज तक स्थानकवासी - सम्प्रदाय में यह मान्यता चली श्रा रही है । भाजकल के कई स्थानकवासी सम्प्रदायों ने अपनी परम्परा में से शाह लौका का नाम निकाल कर ज्ञानजी यति, अर्थात् "ज्ञानचन्द्रसूरिजी " से अपनी पट्टपरम्परा शुरु की है। खास करके पंजाबी और कोटा की परम्परा के स्थानकवासी साधु लोंका का नाम नहीं लेते, परन्तु पहले के लौका गच्छ के यति लोकाशाह से ही अपनी पट्टपरम्परा शुरु करते थे । हमने पहले जिस लोकाशाह के शिलोके को दिया है उसमें केशवजी ऋषि द्वारा लिखी हुई पट्टावली केशवर्षि वरिणत, “लौंकागच्छ की पट्टावली ( ६ )", इस शीर्षक के नीचे दी है । श्री देवद्धि गरिण के बाद ज्ञानचन्द्रसूरि तक के प्राचार्यों के नामों की सूची देकर केशवजी लोकाशाह का वृत्तान्त लिखते हैं तथा लोकाशाह के उत्तराधिकारी के रूप में भारगजी ऋषि को बताते हैं भोर भारगजी के बाद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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