Book Title: Kundakundadeva Acharya Author(s): Rajaram Jain, Vidyavati Jain Publisher: Prachya Bharti Prakashan View full book textPage 6
________________ ( ) आवश्यकता इस बात की है कि युगो-युगो से लिखित सस्कृत एव प्राकृत के जैन-साहित्य मे वणित 'द्रव्य-व्यवस्था' वाले अशो का एक साथ सकलन हो तथा उनका विश्व की प्रमुख भाषाओ मे अनुवाद कराकर विश्व-प्रसिद्ध वैज्ञानिको को भेंटस्वरूप भेजा जाय, जिससे वैज्ञानिक-गण अपने अन्वेषणो के क्रम मे इस सामग्री का भी सदुपयोग कर सकें। हम चारो वहिन-भाई ऐसे माता-पिता की सन्ताने हैं, जिन्हे अपने बचपन में ही साहित्य एवं श्रमण-सस्कृति का पूर्ण वातावरण मिला है। उनके विशाल ग्रन्थागार के बीच बैठकर भले ही हम सस्कृत एव हिन्दी साहित्य तथा दर्शन-शास्त्र के अध्येयता न बन सके हो, फिर भी उसके बीच बैठकर पढे-लिखे, लडे-झगडे एव खेले-कूदे हैं। ज्ञान-पिपासु भी बनें । उसी के मध्य हम लोग सवेदनशील भी बन सके । ज्ञान-पिपासु के इसी सस्कार के साथ हम लोगो ने फिजिक्स, गणित, कम्प्यूटर-विज्ञान की अन्तिम परीक्षाओ मे सर्वोच्चता भी प्राप्त की और अब भले ही विज्ञान-विषय होने के नाते हमारा रास्ता श्रमण सस्कृति के अध्ययन से पृथक् हो गया, फिर भी हमारे माता-पिता द्वारा प्रदत्त श्रमण-सस्कार हमारे कर्मक्षेत्र के लिए निरन्तर पाथेय बने रहे और दिल्ली के चकचौंधया देने वाले विलासितापूर्ण वातावरण में भी उन सस्कारो ने हमे इधर उधर न भटकाकर श्रमणसस्कृति के गौरव से निरन्तर जोडे रखा। विश्वविख्यात वैज्ञानिक प्रो० डॉ० DS Kothari, आदि के जैन-- विज्ञान सम्बन्धी निबन्धो तथा परमपूज्य आचार्य विद्यानन्द जी, आचार्य तुलसीगणि एव नगराज जी के समय-समय पर दिल्ली मे हुए भाषणो से भी हम लोगो को बडी प्रेरणाएँ मिलती रही हैं अत हमारी इच्छा थी कि उस दिशा मे हम लोग भी कुछ कार्य करें। किन्तु अपनी अध्ययन एव शोध सम्बन्धी अनेक व्यस्तताओ के चलते तथा प्राच्य-विद्या का व्यवस्थित ज्ञान नही होने से हम लोग कुछ नही कर सके, इसका हार्दिक खेद रहेगा। किन्तु भविष्य मे हम लोग कुछ ठोस कार्य कर सकें, ऐसी दृढ इच्छा है। इसी बीच, इस सदी के गौरव-शिखर अध्यात्म-योगी पूज्य आचार्यश्री विद्यानन्द जी का एक सन्देश हमे पढने को मिला, जिसमे उन्होंनेPage Navigation
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