Book Title: Kundakundadeva Acharya
Author(s): Rajaram Jain, Vidyavati Jain
Publisher: Prachya Bharti Prakashan

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Page 36
________________ 42/ आचार्य कुन्दकुन्द अर्थात् तपरहित ज्ञान एव ज्ञानरहित तप ये दोनो ही निरर्थक हैं (अर्थात् एक के विना दूसरा अन्धा एव लंगडा है) अतः ज्ञान एव तप से युक्त माधक ही अपने यथार्थ लक्ष्य को प्राप्त करता है। पूर्व-परम्परा प्राप्त कर आचार्य कुन्दकुन्द ने ससार की समस्त समाजविरोधी दुष्प्रवृत्तियो एव अनाचारो को पांच भागो मे विभक्त किया-हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील एव परिग्रह । इनका यथाशक्ति त्याग करना ही श्रावकाचार है तथा सर्वदेश त्याग करना ही मुनि-आचार । जैनधर्म की यह आचारव्यवस्था वस्तुत सर्वोदयवाद का अपरनाम माना जा सकता है, क्योकि उन दोनो मे न केवल मानव के प्रति, अपितु समस्त प्राणि-जगत के प्रति ही मद्भावना, सुरक्षा एव उसके विकास की प्रक्रिया मे उसके सहयोग की पूर्ण कल्याण-कामना निहित रहती है। अत यदि जैनाचार का मन, वचन एव काय मे निर्दोष पालन होने लगे, तो सारा ससार स्वत ही सुधर जायगा। कोर्ट-कचहरियो एव थानो की आवश्यकता ही नहीं रहेगी। उनमे ताले पड जावेंगे। पुलिस, सेना, तोप एव तलवारो की भी आवश्यकता नहीं रहेगी। Indian Penal Code मे वर्णित अपराध-कर्मों तथा पूर्वोक्त पांच पापो का यदि विधिवत् अध्ययन किया जाये, तो उनमे आश्चर्यजनक समानता दृष्टिगोचर होती है। इस कोड में भी पांच-पापो का विभिन्न धाराओ मे वर्गीकरण कर उनके लिए विविध दण्डो की व्यवस्था का वर्णन किया गया है । अन्तर केवल यही है कि एक मे प्रायश्चित, साधना, आत्ममयम तथा आत्मशुद्धि के द्वारा अपराध-कर्मों से मुक्ति का विधान है, तो दूसरे में कारागार की सजा, अर्थदण्ड एव पुलिस की मारपीट आदि से अपराध-कर्मों की प्रवृत्ति को छुडाने के प्रयत्न की व्यवस्था है। आदर्शवादी दृष्टिकोण से यदि देखा जाय तो स्वस्थ समाज एव 1 विशेष जानकारी के लिए दे० रत्नकरण्डश्रावकाचार [सम्पादक श्री क्षुल्लक धर्मानन्दजी, दिल्ली 1988] मे डॉ० राजाराम जैन द्वारा लिखित प्राक्कथन।

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