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46 / आचार्य कुन्दकुन्द ही सीमित रहा है। यह आश्चर्य का विषय है कि अभी तक अध्येताओ का ध्यान कुन्दकुन्द-साहित्य के सास्कृतिक मूल्याकन की ओर नही गया। अत कुन्दकुन्द की रचनाओ मे उपलब्ध कुछ भौगोलिक एव सास्कृतिक सन्दर्भो पर यहाँ प्रकाश डालने का प्रयत्न किया जा रहा है। यह तथ्य है कि कोई भी कवि साहित्य-लेखन के पूर्व अपने चतुर्दिक व्याप्त जड और चेतन का गम्भीर अध्ययन ही नहीं करता, वल्कि उससे साक्षात्कार करने का प्रयत्न भी करता है। तभी वह अपने कवि-कर्म मे सर्वांगीणता तथा चमत्कार-जन्य सिद्धि प्राप्त कर पाता है । आचार्य कुन्दकुन्द के साहित्य का अध्ययन करने से यह वात स्पष्ट हो जाती है।
प्रस्तुत अध्ययन के क्रम मे इस बात को ध्यान मे रखना आवश्यक है कि यद्यपि कुन्दकुन्द ने प्रसग-प्राप्त लौकिक तथ्यो के सकेत अथवा उल्लेख भले ही विध्यर्थक न किये हो और वे निषेधार्थक ही हो, फिर भी उन्होने अपने सिद्धान्तो के स्पष्टीकरण हेतु कुछ लौकिक शब्दावलियो एव उदाहरणो को प्रस्तुत किया है और सस्कृत-टीकाकारो ने कुन्दकुन्द के हार्द को ध्यान में रखते हुए ही उनका विश्लेषण किया है । यहां पर सन्दर्भित सामग्री का उपयोग केवल यह बतलाने के लिए किया जा रहा है कि कुन्दकुन्द एकागी नही, बहुज्ञ थे । दार्शनिक एव आध्यात्मिक क्षेत्र में उनकी जितनी पंठ थी, लौक्कि ज्ञान में भी उतनी ही पंठ थी। अत उनकी रचनाओ मे प्राप्त कुछ लौकिक सन्दर्भो पर आधुनिक परिप्रेक्ष्य मे यहाँ सक्षिप्त प्रकाश डाला जा रहा हैसमकालीन भारतीय भूगोल एव प्राचीन जैन तीर्थभूमियाँ
आचार्य कुन्दकुन्द के 'दशभवत्यादि-सग्रह' मे सग्रहीत निर्वाण-काण्ड को ही लिया जाय, उसमे उन्होंने समकालीन देश, नगर, नदी एव पर्वतो का गेय-शैली मे जितना सुन्दर अकन किया है, वह अपूर्व है। जैन-तीर्थो के इतिहास की दृष्टि से तो उसका विशेप महत्त्व है ही, प्राच्य-भारतीय भूगोल की दृष्टि से भी वह कम महत्त्वपूर्ण नहीं। यह ध्यातव्य है कि आचार्य
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1. निर्वाणकाण्ड, गाथा 1-18