Book Title: Kundakundadeva Acharya
Author(s): Rajaram Jain, Vidyavati Jain
Publisher: Prachya Bharti Prakashan

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Page 65
________________ 86 / आचार्य कुन्दकुन्द शक्ति के बाहर हो, उसके प्रति वह श्रद्धालु बना रहे। यही उपयुक्त भी है । इसमे व्यर्थ के प्रदर्शनो की आवश्यकता नही है । सदाचरण ही श्रेष्ठ धर्म है 5 सब्वे वि य परिहीणा रूवविरूवा वि वदिदमुवया वि । सील जेसु सुसील सुजीविद माणुस तेसि ॥ ( शीलपाहुड 18 ) -जो भले ही हीन-जाति के हैं, रूप से विरूप अर्थात् कुरूप है और जो वृद्धावस्था से युक्त हैं — इन सबके होने पर भी यदि वे सुशील हैं तो उन्ही की मानवता जीवन्त है अर्थात् उन्ही का मनुष्य-भव सर्वश्रेष्ठ है । तात्पर्य यह कि जो व्यक्ति लोक का हितैषी है, उसका निश्छलव्यवहार एव सरल-हृदय होना ही पर्याप्त है । भले ही वह जाति एव कुल से हीन हो अथवा कुरूप या अपग, तो भी वह अपने जीवन मे आगे बढ सकता है और सफल तथा यशस्वी हो सकता है । ससार का समस्त वैभव क्षणिक है 6 वरभवण - जाण - वाहण - सयणासण-देव- मणुवरायाण । मादु-पितु सजण - भिच्चसवधिणो य पिदिवियाणिच्चा ॥ ( वारसाणु ० 3 ) - उत्तम भवन, यान, वाहन, शयन, आसन, देव, मनुष्य, राजा, माता, पिता, स्वजन, सेवक सम्वन्धी तथा चाचा आदि सभी अनित्य हैं । विशेष- लोग अपने वैभव पर इठलाते हैं, सौन्दर्य पर अभिमान करते हैं, उच्चकुल मे जन्म लेने के कारण घमण्ड मे चूर रहते हैं, किन्तु मरते समय कितनी वस्तुएं उनके साथ मे जाती हैं ? यह सभी जानते हैं कि मिकन्दर विश्व - विजय की, अरवो-खरवो की मम्पत्ति लूटी, किन्तु कितना धन वह साथ मे ले गया ? कुन्दकुन्द कहते हैं कि शरीर और आत्मा भिन्न-भिन्न हैं । आत्मा के अतिरिक्त जितने भी पदार्थ हैं, वे सब क्षणिक हैं। अत उनमे लिप्त मत बनो ।

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