Book Title: Kundakundadeva Acharya
Author(s): Rajaram Jain, Vidyavati Jain
Publisher: Prachya Bharti Prakashan

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Page 64
________________ आचार्य कुन्दकुन्द / 85 अधिक सारतत्त्व है सम्यग्दर्शन, क्योकि सम्यग्दर्शन से ही सम्यक्चारित्र होता है और सम्यक्चारित्र से निर्वाण की सम्प्राप्ति । विशेष प्रस्तुत गाथा मे कुन्दकुन्द ने लक्ष्यसिद्धि के लिए रत्नत्रय के महत्त्व पर प्रकाश डाला है। रत्नत्रय का अर्थ है-सम्यक्दर्शन अर्थात निर्दोष श्रद्धान एव विश्वास, ज्ञान अर्थात् निर्दोष ज्ञान एव निर्दोष चारित्र । आचार्यों ने एक उदाहरण देते हुए बताया है कि जिस प्रकार एक रोगी को स्वस्थ होने के लिए चिकित्सक एव चिकित्सा पर विश्वास करना आवश्यक है, क्योकि उसके बिना दवा का प्रभाव रोगी की बीमारी पर नही पड सकता। अत सबसे पहले सम्यक् विश्वास, फिर चिकित्सक एव चिकित्सा के विषय मे उसकी उपादेयता का ज्ञान भी आवश्यक है। तत्पश्चात् चिकित्सक के कथनानुसार दवा समय पर लेना भी आवश्यक है । इन तीनो विधियो मे से यदि किसी एक मे किसी भी प्रकार की कमी रहेगी, तो रोगी जिस प्रकार ठीक नही हो सकता उसी प्रकार श्रावक एव साधु भी रत्नत्रय के बिना लक्ष्य की प्राप्ति नही कर सकते। शक्ति के अनुसार ही धर्माचरण किया जाए4 ज सक्कइ त कीरइ ज च ण सक्केइ त च सद्दहण । केवलि जिणेहि भणिय सद्दहमाणस्य सम्मत ।। (दर्शन० 22) -जितना चारित्र धारण किया जा सके, उतना मात्र ही धारण करना चाहिए और जो धारण नही किया जा सकता, उसका श्रद्धान करना चाहिए। क्योकि केवलज्ञानी ने श्रद्धान करनेवालो के इस गुण को ही • सम्यग्दर्शन बतलाया है। विशेष व्यक्ति को अपनी शक्ति के अनुसार ही साधना करना चाहिए । अन्यथा उसकी स्थिति वैसी ही होगी जैसे कि दुर्वल बैल पर शक्ति से अधिक वोझा लाद देने से हो सकती है । कुन्दकुन्द के सकेतानुसार व्यक्ति को अपनी शक्ति के अनुसार ही धर्माचरण करना चाहिए तथा जो उसकी

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