Book Title: Kundakundadeva Acharya
Author(s): Rajaram Jain, Vidyavati Jain
Publisher: Prachya Bharti Prakashan

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Page 52
________________ आचार्य कुन्दकुन्द /65 पर्वत, चट्टान एव लोहे की सुदृढ बन्द टकी भी उस अरूपी-आत्मा को निकलने से रोक नही सकती। अत हे राजन्, शरीर एव आत्मा निश्चय से भिन्न राजा प्रदेशी एक सुदृढ अभेद्य लोहे की टकी मे जीवित चोर को वन्द कर दिया गया । उसमे वह तो मर गया, किन्तु उसके शरीर मे अनेक कीडे उत्पन्न हो गये। छिद्ररहित उस टकी मे वे घुसे कहाँ से होगे? उस अभेद्य टकी मे जीवो के गमनागमन के सकेत-चिह्न न मिलने से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि शरीर एव आत्मा अवश्य ही अभिन्न हैं। केशी जिस प्रकार, हे राजन्, अभेद्य लोहे की टकी मे चोर को बन्द कर देने तथा उसके मरने के बाद जिस प्रकार उसके जीव (आत्मा के निकलने का कोई चिह्न दिखाई नही पडता । उसी प्रकार उसके मृतशरीर मे भी अप्रतिहत-गति से जीवो का प्रवेश हो जाता है और उन्हे भी कोई देख नही पाता । इमी से स्पप्ट है कि परलोक भी है तथा शरीर और आत्मा भिन्न ही हैं। राजा प्रदेशी एक तरुण व्यक्ति जैसा कार्य कर सकता है, वैसा ही कार्य एक बालक नहीं कर सकता । जैसे, एक तरुण व्यक्ति पांच बाण एक साथ छोड़ सकता है, किन्तु वालक निश्चित रूप से नहीं छोड़ सकता । इसी प्रकार हे श्रमणकुमार, तरुण एव वृद्ध व्यक्तियो को समान रूप से भारी बोझ उठा सकना चाहिए किन्तु तरुण तो उसे उठा सकता है, वृद्ध नही। इमी से सिद्ध है कि शरीर और आत्मा अभिन्न हैं। केशी : हे राजन्, वालक एव तरुण अथवा वृद्ध अथवा तरुण व्यक्ति की भौतिक कार्य-क्षमता का मुख्य कारण

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