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आचार्य कुन्दकुन्द / 19
कारण अलोकाकाश को भी नही मानते और अलोकाकाश को माने विना लोक-व्यवस्था वन ही नही सकेगी ।
काल- द्रव्य (Time-substance)
विश्व व्यवस्था के लिए जैनाचार्यों ने कालद्रव्य को भी अन्य द्रव्यो की भाँति ही विशेष महत्त्व प्रदान किया है । क्योकि वह परिवर्तन का सूचक है और परिवर्तन ही विकास का प्रधान कारण माना गया है।
कुन्दकुन्द प्रभृति आचार्यों ने संस्कृत एव प्राकृत मे काल- द्रव्य के विषय मे गम्भीर अध्ययन एव विश्लेषण प्रस्तुत किए हैं। उनके अनुसार वह पदार्थों के परिवर्तन मे कुम्भकार - चक्रवत् सहायक कारण है । उसमे उत्पाद, व्यय एव ध्रुवत्व होने के कारण उसे जीवादि के समान ही 'द्रव्य' माना गया है ।
काल का वर्गीकरण दो प्रकार से किया गया है
( 1 ) निश्चयकाल ( लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश मे व्याप्त असख्य अविभाग कालाणु), तथा
( 2 ) व्यवहारकाल अर्थात् वह 'समय' जो एक परमाणु या कालाणु अपने पास से दूसरे (Consecutive ) परमाणु के पास तक पहुंचने मे लगता है ।
उक्त परिभाषाओं के अनुसार व्यवहार-काल सादि एव सान्त तथा निश्चयकाल अनन्त है, जो धौवत्व ( वर्तना, contuity) का सूचक है ।
कालाणुओ मे परस्पर मे मिलने की शक्ति नही होने से वे पुद्गलस्कन्ध के समान बँध नही सकते । वे अदृश्य, अरूपी एव निष्क्रिय होते है । काल-द्रव्य मे अस्तित्व तो माना गया है किन्तु अन्य द्रव्यो के समान उसमे कायत्व (अर्थात् विस्तार एव मिलन) की शक्ति नही है । अत उसे अनस्तिकाय कहा गया है।
परिमाण की दृष्टि से काल का सबसे वडा परिमाण महाकल्प है जो उमर्पिणी एव अवसर्पिणी के काल के जोड के बराबर है और जो लगातार
1 पचास्तिकाय, गाथा - 22