________________
आचार्य कुन्दकुन्द / 77
लोक-व्यवस्था मे अधर्म-द्रव्य का महत्त्व
अधर्मं द्रव्य लोक व्यवस्था के लिए अत्यावश्यक तत्त्व है । यदि वह न होता तो विश्व का प्रत्येक पदार्थ निरन्तर चलायमान रहता और इस प्रकार लोक मे स्थायित्व नही रह पाता । लोक मे यदि केवल जीव, पदार्थ एव आकाश मात्र ही होते तो वे सभी ( अधर्म द्रव्य के अभाव के कारण ) अनन्त आकाश मे फैल जाते और इस प्रकार समस्त लोक व्यवस्था ही गडचड हो जाती ।
तात्पर्य यह कि धर्म द्रव्य (Medium of motion) तथा अधर्म द्रव्य (Medium of rest ) ये दोनो ही द्रव्य (Substances ) लोक व्यवस्था के लिए अनिवार्य है । यद्यपि दोनो ही द्रव्य परस्पर विरोधी है, फिर भी उनमे परस्पर में किसी प्रकार की टकराहट नही है, क्योकि वे किसी को
गमन करने अथवा ठहरने के लिए प्रेरणा नही देते या जवरदस्ती नही करते बल्कि जो स्वत ही गमन करते हैं, अथवा जो स्वत ही स्थिर होते हैं, उनके लिए वे अनिवार्य रूप से सहायक अवश्य होते हैं । कुन्दकुन्द कहते
णय गच्छदि धम्मत्यी गमनं ण करेदि अण्णदवियस्स | हवदि गदिस्स य पसरो जीवाणं पोग्गलाणं च ॥ पचास्ति०- 88॥
अर्थात् धर्मास्तिकाय गमन नही करता और अन्य द्रव्य को भी वह बलात् गमन नही कराता । वह तो जीवो तथा पुदग्लो की गति का उदासीन प्रसारक है ।
ठीक यही स्थिति अधर्मास्तिकाय की भी है ।
आकाश द्रव्य ( Space-substance)
आकाश द्रव्य भी पारिभाषिक शब्द है । वतलाया गया है कि जो जीव पुदगल, धर्म, अधर्म एव काल को अवकाश अर्थात् स्थान-दान दे वही आकाश है ।
11
जैनाचार्यों के कथनानुसार आकाश नित्य, व्यापक एवं अनन्त है । वह 1 पचास्तिकाय, गाथा 91-94
●