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आचार्य कुन्दकुन्द /67 के अग-प्रत्यगो के छिन्न-भिन्न कर डालने पर भी आत्मा दिखलाई नही पडती। अत शरीर तथा
आत्मा अभिन्न ही हैं। राजा प्रदेशी क्या आत्मा को हथेली पर रखे गए आंवले की तरह
दिखाया जा सकता है? केशी आत्मा-जीव को तो केवलज्ञानी सर्वज्ञ ही देख सकते
हैं। छद्मस्थ या सामान्य चर्मचक्षु उसे नही देख
सकते। राजा प्रदेशी हे श्रमणकुमार, आत्मा की आकृति क्या है? केशी हे राजन्, आत्मा तो निराकार है । अगुरुलघु-गुण के
कारण वह शरीर के प्रमाण के अनुसार चीटी या
हाथी के शरीर-प्रमाण बन जाती है। जीव-द्रव्य की सफल खोज के लिए आधुनिक-वैज्ञानिको को जैन-दर्शन का अध्ययन आवश्यक
राजा प्रदेशी एव कुमारश्रमण केशी का उक्त सवाद वडा ही महत्त्वपूर्ण एव ऐतिहासिक है। भले ही उस युग मे आज जैसी खर्चीली विस्तृत प्रयोगशालाएं न रही हो, फिर भी प्रयोग की चातुर्य-पूर्ण प्रक्रिया अवश्य थी। आवश्यकता इस बात की है कि प्राकृत-जैन-साहित्य के इन वैज्ञानिक प्राचीन अनुसन्धानो तथा शास्त्रार्थो से युक्त अशो का विदेशी-भाषाओ मे अनुवाद कर ससार के वैज्ञानिको को भेजा जाय, जिससे अनुप्राणित होकर वे उस सामग्री का भी उपयोग कर सकें।
कुछ जैन-वैज्ञानिको के सराहनीय कार्य
यह प्रसन्नता का विषय है कि 4-5 दशको मे कुछ जैन-बैज्ञानिको का ध्यान जैनाचार्यों द्वारा प्रतिपादित उक्त द्रव्य व्यवस्था की ओर गया है और उन्होने आधुनिक-विज्ञान के साथ-साथ उसके तुलनात्मक अध्ययन करने के प्रयत्न किए हैं। ऐसे वैज्ञानिको मे सर्वथी प्रो० डॉ० दौलतसिंह कोठारी, मुनिश्री नगराज जी, डॉ० नन्दलाल जैन, डॉ० दुलीचन्द्र जैन एव