Book Title: Kundakundadeva Acharya
Author(s): Rajaram Jain, Vidyavati Jain
Publisher: Prachya Bharti Prakashan

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Page 51
________________ 64 / आचार्य कुन्दकुन्द हैं । अत हे राजन्, परलोक की सत्ता अवश्य है तथा शरीर एव आत्मा अभिन्न हो ही नही सकते । निश्चित रूप से वे भिन्न-भिन्न ही हैं । राजा प्रदेशी धार्मिक सच्चरित्र लोग स्वर्ग मे जाकर विक्रिया ऋद्धि से मर्त्यलोक मे शीघ्र ही आकर अपने परिवार के लोगो को अच्छे कार्य करने की प्रेरणा क्यो नही देते ? चूंकि ऐसा देखा नही जाता, इसीलिए हे श्रमण कुमार, प्रतीत होता है कि परलोक भी नही है तथा शरीर एव आत्मा अभिन्न हैं । श्रमणकुमार केशी स्वर्ग मे जाते ही प्राणी वहाँ के भोग-विलास मे इतने रम जाते हैं कि फिर उन्हे मर्त्यलोक मे लौटकर घूमने का समय नही मिलता । चाहकर भी आ नही पाते, क्योकि मर्त्यलोक मे उन्हे बहुत दुर्गन्ध आती है, इस कारण आना भी नही चाहते । किन्तु परलोक अवश्य है और शरीर एव आत्मा निश्चय ही भिन्न है । राज्राप्रदेशी एक जीवित अपराधी को लोहे की टकी मे बन्द कर देने तथा कुछ दिनो के बाद उसे निकालकर देखने से वह मरा हुआ पाया गया। टकी का परीक्षण करने मे ऐसा कोई द्वार या छिद्र नही पाया गया, जहां से उसका जीव निकला हो। यदि शरीर से जीव भिन्न होता, तो उसके निकलने का कोई-न-कोई सकेत या चिह्न अवश्य ही होता किन्तु उसके न मिलने से विदित होता है कि शरीर एव आत्मा अभिन्न है । केशो जिस प्रकार अभेद्य गुफा मे दरवाजा बन्द कर देने पर भी तेज वजते हुए नगाडे की आवाज, बिना किसी तोडफोड के सहज मे ही बाहर निकल आती है, उसी प्रकार प्राणी के मरने पर जीव ( आत्मा ) अप्रतिहत-गति से बाहर निकल जाता है । क्योकि

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