Book Title: Kundakundadeva Acharya
Author(s): Rajaram Jain, Vidyavati Jain
Publisher: Prachya Bharti Prakashan

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Page 28
________________ 3. कुन्दकुन्द साहित्य का काव्य - सौष्ठव कुन्दकुन्द की भाषा आचार्य कुन्दकुन्द को केवल अध्यात्मी मन्त-कवि मानकर उनके विराट व्यक्तित्व को सीमित करना उपयुक्त नही । वे निश्चय ही एक योगी और सिद्ध महापुरुष तो थे ही, इसके अतिरिक्त वे एक महान् भाषाविद्, साहित्यकार एव भारतीय संस्कृति के प्रामाणिक आचार्य - लेखक भी थे । भाषा-वैज्ञानिको ने उनके साहित्य की भाषा को जैन-शौरसेनी प्राकृत माना है । शौरसेनी (नाटको मे प्रयुक्न शौरमेनी) और जैन-शौरसेनी प्राकृत वही अन्तर है जो वैदिक और लौकिक संस्कृत मे, मागधी और अर्धमगधी प्राकृत मे, महाराष्ट्री और जैन - महाराष्ट्री प्राकृत मे, अपन श और अवहठ्ठ मे तथा हिन्दी और हिन्दुस्तानी मे है । 'प्राकृत के तीन प्रमुख स्तर एव जैन शौरसेनी प्राकृत यहां विषय-विस्तार के भय से सामान्य भाषा-भेद पर अधिक विचार -न कर केवल इतनी जानकारी दे देना ही पर्याप्त है कि भाषा वैज्ञानिको ने प्राकृत मापा के तीन प्रमुख स्तर माने हैं - ( 1 ) मागधी, ( 2 ) अर्धमागधी एव ( 3 ) शौरमेनी । कुन्दकुन्द की भाषा की मूल प्रवृत्ति शोरमेनी होने पर वह प्राच्य - अर्धमागधी से अधिक प्रभावित है । जैनेतर संस्कृत नाटको की शौरसेनी से कुन्दकुन्द की शौरमेनी अधिक प्राचीन है । महाकवि दण्डी के अनुसार, प्राकृत (अर्थात् शौरसेनी प्राकृत) ने महाराष्ट्र प्रदेश मे प्रवेश पाने पर जो रूप धारण किया, वही उत्कृष्ट महाराष्ट्री प्राकृत के नाम मे प्रसिद्ध

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