Book Title: Kundakundadeva Acharya
Author(s): Rajaram Jain, Vidyavati Jain
Publisher: Prachya Bharti Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 29
________________ आचार्य कुन्दकुन्द /31 कध< कथम् (प्रवचन० 113) तधा< तथा (प्रवचन० 146) अपवाद-अधिकतेजो<अधिकतेज (प्रवचन० 19) (3) महाराष्ट्री-प्राकृत के समान मध्य एव अन्त्यवर्ती ककार-लोप एव अ-स्वर शेष । यथा वेन्विओ<वैक्रियिक (प्रवचन० 171) (4) महाराष्ट्री-प्राकृत के समान मध्य एव अन्त्यवर्ती क्, ग्, च्, ज्, त्, द् का प्राय अनियमित रूप से लोप तथा उद्वत्त-स्वर के स्थान पर य-श्रुति का पाया जाना तथा अनादि प-कार के लुप्त होने पर उद्वत्त स्वर के स्थान पर व-श्रुति का पाया जाना । यथाय-श्रुति-→सयल <सकल (प्रवचन०54) आयास<आकाश (पञ्चास्ति० 91) लोय<लोक (प्रवचन० 35) सायर <सागर (पञ्चास्ति० 172) वयणेहि<वचन (पञ्चास्ति० 34) भायणो<भाजन (भावप्राभृत० 65 तथा 69) सुय< श्रुतम् (प्रवचन० 33) मारुयवाहा<मारुतवाधा (भावप्राभृत 121) पयत्थो<पदार्थ (प्रवचन० 14) उयरे<उदरे (भावपाहुड 39) हवइ< भवति (मोक्षपाहुड 38) व-श्रुति-उपवासो<उपवास (प्रवचन०, 1/69) उपधीदो<उपधीत (प्रवचन० 3/19) (5)(क) प्रथमा विभक्ति मे महाराष्ट्री-प्राकृत के समान 'ओ' यथा सो<स (चारित्रप्रा 38) जो<य ( . .) (ख) चतुर्थी एव पष्ठी के बहुवचन मे---'सि' । यथा तेसिं<तेभ्य (प्रवचन० 82)

Loading...

Page Navigation
1 ... 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73