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28 / आचार्य कुन्दकुन्द
यद्यपि हाथीगुम्फा - शिलालेख (वीर पराक्रमी जैन-सम्राट कलिंगा - धिपति खारवेल सम्वन्धी ) को जैन-शौरसेनी प्राकृत का प्राचीनतम उदाहरण माना गया है किन्तु उसमे सन्दर्भित भाषा का स्थिर रूप नही आ मका है । अत जैन - शौरसेनी के गद्याशो तथा उनकी परिनिष्ठित भाषा के कारण यह साहित्य विशेष महत्त्वपूर्ण है ।
उक्त भक्ति-साहित्य कुन्दकुन्द कृत है या नहीं, इस सन्देह का निराकरण आचार्य प्रभाचन्द्र की इस उक्ति से हो जाता है जिसमे उन्होने स्पष्ट लिखा है कि 'प्राकृत - भक्ति संग्रह' तो आचार्य कुन्दकुन्द कृत है जबकि 'संस्कृतभक्ति-सग्रह' पूज्यपाद स्वामी कृत (संस्कृता सर्वा भक्त्य पूज्यपादस्वामिकृता प्राकृतास्तु कुन्दकुन्दाचार्यकृता . ) । इन भक्तियो के नाम एव त्रम इस प्रकार हैं
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( 1 ) तीर्थंकरभक्ति (2) सिद्धभक्ति
(3) श्रुतभक्ति
(4) चारित्रभक्ति (5) योगिभक्ति ( 6 ) आचार्य भक्ति (7) निर्वाणभक्ति ( 8 ) नन्दीश्वरभक्ति ( 9 ) शान्तिभक्ति
(10) समाधिभक्ति
( 11 ) पञ्चगुरुभक्ति ( 12 ) चैत्यभक्ति
( 8 गाथाएँ एव गद्याश)
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(केवल गद्याश) (केवल गद्याश
( केवल गद्याश)
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(7 गाथाएँ एव गद्याश), एव
( केवल गद्याश)
8 रयणसार ( रत्नसार)
प्रस्तुत ग्रन्थ मे सागार (गृहस्थ ) एव अनगार ( मुनि) के आचार-धर्म के विविध पक्षो की सरल एव सरस भाषा-शैली मे व्याख्या की गई है । इस रचना के अद्यावधि अनेक सस्करण निकल चुके हैं किन्तु डॉ० देवेन्द्र कुमार शास्त्री द्वारा सम्पादिन सस्करण (इन्दौर, 1974 ई०) सर्वश्रेष्ठ, प्रामाणिक एव सर्वोपादेय है । प्रस्तुत रचना मे 155+ 12 गाथाएँ हैं ।