Book Title: Kundakundadeva Acharya
Author(s): Rajaram Jain, Vidyavati Jain
Publisher: Prachya Bharti Prakashan

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Page 26
________________ आचार्य कुन्दकुन्द / 27 13) चारित्रपाहुड (45 गाथाएं मात्र) (4) बोधपाहुड (61 गाथाएँ ,) (5) मावपाहुड (164 गाथाएँ ,) (6) मोक्षपाहुड (106 गाथाएँ .) (7) लिंगपाहुड (22 गाथाएँ ।) (8) शीलपाहुड (40 गाथाएँ ,) • वारस अगुवेक्खा (द्वादशानुप्रेक्षा) पदार्थ के स्वरूप का बारम्बार सूक्ष्मानिसूतम एकाग्र चिन्तन (अनु+ प्र+ईक्षण) करना ही अनुप्रेक्षा है। इन अनुप्रेक्षाओ को 'भावना' भी कहा गया है । वैराग्य सम्बन्धी भावना के पोषण की दृष्टि मे इसका विशेष महत्त्व है। ये अनुप्रेक्षाएं अथवा भावनाएँ 12 होती है। आचार्य कुन्दकुन्द ने अपनी कुल 91 गाथाओ मे उनका क्रम निम्न प्रकार निर्धारित किया है अद्धवमसरणमेगतमण्णससारलोगममुचित। आसवसवरणिज्जरधम्म बोहि च चितेज्जो ।। (गाथा-2) अर्थात् (1) अध्र व (अनित्य), (2) अशरण, (3)एकत्व, (4) अन्यत्व, (5) ससार, (6) लोक, (7) अशुचित्व, (8) आस्रव, (9) सवर, (10) निर्जरा, (11) धर्म एव (12) वोधि । इन द्वादश अनुप्रेक्षाओ का चिन्तन करना चाहिए। उक्त रचना के अनुकरण पर परवर्तीकालो मे प्राकृत, सस्कृत, अपभ्रंश एव हिन्दी आदि मे लगभग दो दर्जन से अधिक रचनाएँ लिखी गई। 7 भक्ति-सगहो (भक्ति-संग्रह) प्रस्तुत साहित्य मे आराध्यो के प्रति भक्ति का निदर्शन एव व्याख्या की गई है। इस माहित्य का जाचार, अध्यात्म एव मिद्धान्त की दृष्टि में तो अपना विशेष महत्त्व है ही, साहित्यिक इतिहास की दृष्टि से भी उनका निगेप महत्त्व है । क्योकि इस भक्ति-साहित्य की प्रत्येक रचना के अन्त में प्राकृत गद्याश भी प्रस्तुत किया गया है। ये अशऐतिहासिक महत्त्व के हैं, क्योकि एक ओर तो वे जैन-शौरसेनी की गद्य-शैली का प्रतिनिधित्व करते हैं और दूसरी ओर, जैन-शौरसेनी भाषा के परिनिप्ठित रूप को प्रस्तुत करते हैं।

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