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34 / आचार्य कुन्दकुन्द
अनुप्रास-अलकार
ससिद्धिराधसिद्ध साधिदमाराधिदं च एयट्ठ । अवगदराधो जो खलु चेदा सोहोदि अवराधो॥
(समयसार-304)
अप्रस्तुतप्रशसालकार
"गुडमिश्रित दूध पीने पर भी सर्प विष रहित नही हो सकता।" इस उक्ति के द्वारा अप्रस्तुतप्रशसा का सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत किया गया है। यथा
ण मुयइ पयडि अभवो सुट्ठ वि आयणिण जिणधम्म । गुडसुद्ध पि पिवता ण पण्णया णिविसा होति ॥
(भावपाहुड-137)
उदाहरणालकार
कुन्दकुन्द-साहित्य मे उदाणालकारो की छटा तो प्राय सर्वत्र ही विखरी हुई है । कुन्दकुन्द ने वालाववोध के लिए लौकिक उपमानो एव उपमेयो के माध्यम से अपने सिद्धान्तो को पुष्ट करने का प्रयास किया है । उनके ये उपसान-उपमेय परम्परा प्राप्त न होकर प्राय सर्वथा नवीन है। नई नई उद्भावनाओ के द्वारा उन्होने उदाहरणो की झडी-सी लगा दी है। समयसार के पुण्य-पागधिकार मे पुण्य-पाप की प्रवृत्ति को समझाने के लिए उन्होने देखिए, क्तिना सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत किया है---
सोवणियम्हि णियल बधदि कालायस च जह पुरिस ।
बदि एव जीव सहमसह वा कद कस्म ।। 146।। अर्थात् जिस प्रकार पुरुष को लोहे की वेडी बांधती है और स्वर्ण की वेडी भी बाँधती है, उसी प्रकार किया गया शुभ अथवा अशुभ कर्म भी जीव को बांधता ही है।
इसी प्रकार कर्मभाव के पककर गिरने के लिए पके हुए फल के गिरने का सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत किया गया है