Book Title: Kundakundadeva Acharya
Author(s): Rajaram Jain, Vidyavati Jain
Publisher: Prachya Bharti Prakashan

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Page 23
________________ 'कुन्दकुन्द / 23 प्रस्तुत ग्रन्थ पर आचार्य अमृतचन्द्र कृत 'तत्त्वप्रदीपिकावृत्ति ' आचार्यं जयमेन कृत 'तात्पर्यवृत्ति' नाम की संस्कृत टीकाएँ सुप्रसिद्ध है । एव 3 समयसार ( अथवा समयप्राभूत) आचार्य अमृतचन्द्र ने प्रस्तुत ग्रन्थ की गुण-गरिमा का वर्णन करते हुए इसे विश्व का असाधारण अक्षय नेत्र कहा है । अनेक आचार्यों ने इसे परमागमों का सार कहा है । शोधार्थियो एव स्वाध्यायार्थियों मे यह ग्रन्थ इतना लोकप्रिय हुआ है कि इसके सर्वाधिक विविध संस्करण एवं पद्यानुवादादि प्रकाशित हुए हैं। यह ग्रन्थ जैनधर्म-दर्शन की महिमा का स्थायी कीर्तिस्तम्भ, मोक्षमार्ग का अखण्ड दीप, मुमूर्षुओ के लिए कामधेनु तथा कल्पवृक्ष के समान माना गया है । आत्मतत्त्व का इतना सुन्दर, सरस एव प्रवाहपूर्ण गम्भीर विवेचन अन्यत्र उपलब्ध नही । परवर्ती लेखकों के लिए यह ग्रन्थ एक प्रमुख प्रेरक स्रोत रहा है । उक्त ग्रन्थ का वर्ण्य-विपय निम्न दस अधिकारो मे विभक्त है 1 पूर्वरंग एव जीवाधिकार 2 जीवाजीवाधिकार आचार्य 3 कर्तुं कर्माधिकार 4 पुण्यपापाविकार 5 आस्रवाधिकार 6 सवराधिकार 7 निर्जराधिकार 8 वन्धाधिकार 9 मोक्षाधिकार 10 सर्वविशुद्ध ज्ञानाधिकार (33 गाथाएँ) (30 गाथाएँ) (76 गाथाएँ) (19 गाथाएँ) (17 गाथाएँ) (12 गाथाएँ) (44 गाथाएँ) (51 गाथाएँ) (20 गाथाएँ) (108 गाथाएँ) कुल 415 गाथाएँ इम ग्रन्थ पर विविध विस्तृत अनेक टीकाएँ लिखी गई हैं, जिनमे से निम्न टीकाएँ एव हिन्दी अनुवाद प्रमुख हैं— 1 आचार्य अमृतचन्द्र कृत आत्मस्याति टीका ( 10वी सदी) 2 आचार्य जयसेन (द्वितीय) कृत तात्पर्यवृत्ति टीका ( 12वी सदी)

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