Book Title: Kundakundadeva Acharya Author(s): Rajaram Jain, Vidyavati Jain Publisher: Prachya Bharti Prakashan View full book textPage 5
________________ प्रकाशकीय भारतीय संस्कृति के निर्माण मे तीर्थंकरो का योगदान अविस्मरणीय है। पूर्व-पाषाणयुगीन ऋषभदेव ने (सुप्रसिद्ध पुरातत्त्ववेत्ता एच० डी० सकलिया के अनुसार) असि (राष्ट्ररक्षा), मसि (लिपि एव भाषा का आविष्कार), कृषि, शिल्प, सेवा (चिकित्सा एव पीडित प्राणियो को यथोचित सेवा-शुश्रूषा), एव वाणिज्य की सर्वप्रथम शिक्षा प्रदान की। तत्पश्चात् हमारे आचार्यों ने निरन्तर ही ज्ञान-विज्ञान की परम्परा को विकसित कर उसे आगे बढ़ाया है। ऋषभदेव ने स्वस्थ एव समृद्ध समाज तथा राष्ट्र-निर्माण के लिए व्यक्ति की सच्चरित्रता को प्रधान आधार बताया, जिसमे इन्द्रिय-दमन एव आत्मानुशासन पर विशेष बल देने के कारण उसे जैनधर्म की सज्ञा प्रदान की गई । अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एव अपरिग्रह की नीव पर आधारित होने और प्राणिमात्र का कल्याणमित्र होने के कारण जैनधर्म को ईसा की दूसरी सदी मे 'सर्वोदय-धर्म के रूप मे भी जाना गया, वर्ततान सदी मे जिससे गांधी, नेहरू, विनोवा, जयप्रकाश आदि ने पर्याप्त प्रेरणाएं ली। कुन्दकुन्द उसी तीर्थकर-परम्परा के महान् सन्त-साधक, ज्ञान-पुञ्ज एव महिमा-मण्डित पूर्व-परम्परा के सवाहक-आचार्य माने गए हैं । उनकी यह विशेषता है कि वे श्रमण-परम्परा के आद्य-लेखक भी हैं । समकालीन लोकप्रिय जन-भाषा (शौरसेनी प्राकृत) मे सर्वप्राणिहिताय, सर्वप्राणिसुखाय उन्होने अपनी प्रौढ-लेखनी से ऐसा अमूल्य ज्ञान-सागर प्रदान किया कि वह कभी भी किसी भी युग के लिए नित नवीन प्रेरणाएँ तथा निर्व्याज सुख एव शान्ति प्रदान करता रहेगा। ___ अध्यात्म, आचार, दर्शन, सस्कृति एव भाषा-विज्ञान के क्षेत्र मे तो कुन्दकुन्द का अद्भुत अनुदान है ही, भौतिक जगत् के लिए भी उन्होंनेPage Navigation
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