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(८).
अनेक उलझनें-एक समाधान
स्वकीय
मानव एक मननशील एवं चिन्तनशील प्राणी है। वह किसी भी समस्या का समाधान अथवा किसी भी प्रश्न का उत्तर प्राप्त करने के लिए तार्किक प्रणाली अपनाता है। अमुक समस्या क्यों उत्पन्न हुई? उसका मूल कारण क्या है? किन परिस्थितियों ने विचित्रता पैदा की? इस समस्या का समाधान क्या है? यह उलझी हुई परिस्थितियाँ कैसे सुलझ सकती हैं? इनको सुलझाने का समुचित उपाय क्या है?
आदि ......
प्रबुद्ध मानव जीवन और जगत की समस्याओं पर इसी ढंग से विचार करता है। किन्तु यह जीवन और जगत ऐसी अबूझ पहेली है, कि मानव जितना इसे सुलझाने का प्रयत्न करता है उतना ही उलझता जाता है। प्रश्नों के मकड़ जाल में मानव बुद्धि उलझ जाती है। कभी उत्तर का किनारा हाथ लगता है, कभी नहीं लगता । यद्यपि मानव इन समस्याओं को सुलझाने का प्रयास प्राचीन काल से ही करता रहा है, फिर भी अभी तक पूर्ण रूप से सफल नहीं हुआ है।
प्राचीन तथा मध्यकालीन मानव मनीषियों ने काफी ऊहापोह करके भी जब उचित समाधान नहीं पाया तो कुछेक ने ईश्वर की इच्छा तथा भगवान की लीला कहकर सन्तोष कर लिया । जब भी उनसे पूछा जाता-अमुक सजन व्यक्ति ऐसा भंयकर कष्ट क्यों भोग रहा रहा है अथवा प्राणहारी संकट क्यों आ गया है तो यही उत्तर मिलता-भगवान की माया है। भगवदेच्छा बलीयसी.......
लेकिन यह कोई सन्तोषप्रद उत्तर नहीं थे। मानव की तार्किक और खोजी मेधा ने इससे विराम नहीं लिया। वह निरन्तर गतिशील एवं चिन्तनशील रहा है। पर्यावरण
सोलहवीं शताब्दी में विज्ञान के चरण आगे बढ़े, तो उसने इन समस्याओं और उलझनों को सुलझाने के लिए वैज्ञानिक दृष्टि का उपयोग किया। इस दिशा में समाज-विज्ञान, (Sociology),मनोविज्ञान, (Psychology), परामनोविज्ञान (Para psychology), oila faşint (Biology), faratocht fagli" (Medical Science), आदि आगे आये।
समाज विज्ञान ने मानव-मानव की प्रकृति, प्रवृत्ति, आचार-विचार, शरीर-यष्टि, शरीर-रचना आदि के लिए वातावरण और पर्यावरण को उत्तरदायी ठहराया।
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