Book Title: Karm Prakruti Part 01
Author(s): Shivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
Publisher: Ganesh Smruti Granthmala

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Page 11
________________ नामकरण के सम्बन्ध में किन्हीं - किन्हीं का मत है कि ये पूर्व इस कारण कहलाये कि श्रमण भगवान महावीर ने सर्वप्रथम इन्हीं का उपदेश दिया था और नाना उल्लेखों से यह भी अनुमान किया जाता है कि इनमें भगवान महावीर से भी पूर्व में हुए तीर्थंकरों द्वारा उपदिष्ट सिद्धान्तों का समावेश किया गया था, इसी कारण इनको पूर्व कहा जाता है । इन पूर्वों में से आठवां पूर्व कर्मप्रवाद तो मुख्यरूप से कर्मविषयक ही था और उसके सिवाय दूसरे आप्रायणीय पूर्व में भी कर्म का विचार करने के लिये कर्मप्राभूत नामक एक उपविभाग था । दुर्भाग्यवश वे पूर्व कालक्रम से विनष्ट हो गये। अतः वर्तमान में उक्त पूर्वात्मक कर्मशास्त्र का मूल अंश तो विद्यमान नहीं है, लेकिन उसी का आधार लेकर उत्तरवर्ती काल के महान आचायों ने घटखंडागम, कषायप्राभूत, गोम्मटसार, कर्मप्रकृति, पंचसंग्रह आदि अर्थगंभीर विशाल कर्मग्रन्थों की रचना की । ये ग्रन्थ पूर्वो की तुलना में काफी छोटे हैं, परन्तु इनका अध्ययन भी अभ्यासियों के लिये कर्मसिद्धान्त का तलस्पर्शी ज्ञान कराने के लिये पर्याप्त है। इनमें पूर्वो से उद्धृत कुछ-न-कुछ अंश सुरक्षित है। श्रीमद् शिवशमंसूरिविरचित 'कर्मप्रकृति' नामक यह कृति कर्मसिद्धान्त का विवेचन करने वाली एक विशिष्ट रचना है । ग्रंथकार आचार्यश्री ने पूर्वगत वर्णन का आधार लेकर इस महान ग्रंथ का अंकन किया है । ग्रंथ इतना सुव्यवस्थित एवं क्रमबद्ध है कि उत्तरवर्ती काल के अनेक आचार्यों ने अपने कथन के समर्थन में बारंबार इस कर्मप्रकृति ग्रंथ का उल्लेख किया है एवं इस ग्रंथ के आशय को विस्तार से स्पष्ट करने के लिये कई आचायों नै पूर्णि, संस्कृत टीका आदि व्याख्या ग्रन्थ भी लिखे हैं। श्रीमद् देवेन्द्रसूरिविरचित कर्मग्रन्थों का संपादन करते समय मुझे यथाप्रसंग विवेचन को स्पष्ट करने के लिये कर्मसिद्धान्त के अनेक ग्रन्थों को देखने का अवसर मिला। उनमें यह कर्मप्रकृति ग्रन्थ भी एक था । ग्रन्थ की विवेचनशैली को देखकर उस समय यह विचार हुआ कि आचार्य मलयगिरिरि एवं उपाध्याय यशोविजयजी की संस्कृत टीकाओं को माध्यम बनाकर इसकी हिन्दी में विस्तृत व्याख्या की जाये और तुलनात्मक अध्ययन करने के लिये विभिन्न ग्रन्थों के संदर्भों को भी समायोजित किया जाये। किन्तु कर्मग्रन्थों के संपादन में व्यस्त होने के कारण मैं इस कार्य को तत्क्षण संपन्न नहीं कर सका कि इसी बीच श्री सुन्दरलाल जी सा. तातेड़ ने मुनि श्री सेवन्तमुनि जी म. सा. द्वारा लिखी गई हिन्दी अनुवाद की एक प्रतिलिपि मुझे देकर शीघ्र हो संपादन कार्य करने की प्रेरणा दी। उनकी प्रेरणा को लक्ष्य में रखते हुए परमश्रद्धेय आचार्य श्री नानालाल जी म. सा. के सानिध्य में मैंने इस ग्रन्थ का संपादन कार्य प्रारम्भ किया। कर्महोने से इस पर अगाध प्रज्ञानिधि आचार्यश्री द्वारा मौलिक, सैद्धान्तिक विश्लेषणात्मक अथवा में यों कहूं तो अधिक संगत होगा कि आचार्यप्रवर के द्वारा हो ग्रन्थ को पूर्णता सिद्धान्त का गहनतम ग्रन्थ व्याख्याएँ प्रस्तुत की गई प्राप्त हुई है। संपादन करते समय मैंने ग्रन्थ के आशय को यथारूप में प्रगट करने की पूरी सावधानी रखी है। फिर भी कहीं कोई चूक हो गई हो, अस्पष्टता अथवा मुद्रण आदि में अशुद्धि रही हो तो उसके लिये क्षमाप्रार्थी हूँ । विज्ञजनों से निवेदन है कि वे उसको संशोधित करके मुझे सूचित करने की कृपा करें। प्रूफ संशोधन में श्री सुन्दरलाल जी तातेड़ का पूर्ण सहयोग रहा है । इसके लिये उनका आभारी प्रूफ संशोधन करते समय अशुद्धि न रहने का ध्यान रखा है, फिर भी अनजान में कोई त्रुटि रह गई हो तो विशपाठक उसको गौण मानकर यथास्थान उसी आशय को ग्रहण करेंगे जो वहाँ अपेक्षित, शुद्ध एवं संगत है। (१०)

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