Book Title: Kalyankarak
Author(s): Ugradityacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Govind Raoji Doshi Solapur

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Page 17
________________ ( 10 ) मनपर त्रिधातुवोंका कार्य होता है तो मनका भी त्रिधातुवोंपर कार्य होता है । इस प्रकार वे परस्परानुबंधी हैं। दोनोंके व्यापार में आहारादिकों की सहायता लगती है । सात्विक, राजस व तामस, इसप्रकार आहार के तीन भेद हैं। उनका परिणाम शरीर के धातुवोंपर होता है एवं मनके सत्व, रज व तमोगुणपर होता है ! आहार के समान औषधिका भी परिणाम मनके त्रिगुणपर होता हैं । 1 धातुवोंकी समता रहनेपर स्वास्थ्य बना रहता है । उनका वैषम्य होनेपर स्वास्थ्य बिगडने लगता है | त्रिधातु जब समस्थितिमें रहते हैं, तभी उनको धातुसंज्ञा दी गई है। वे शरीर को चलाते हैं, बढाते हैं व स्वस्थ बनाये रखते हैं । असात्म्येंद्रियार्थसंयोग, प्रज्ञापराध व परिणामादि कारणों से धातुपर परिणाम होता है । धातुवोंकी समता नष्ट होती है, अर्थात् वैषम्य उत्पन्न होता है । उनमें वैषम्य उत्पन्न होनेपर वे शरीरोपकारक नहीं होसकते । क्यों कि विकृतिके उत्पन्न होनेसे शरीरापायकारक होते हैं । तभी उनको दोष कहते हैं । दोषकी उत्पत्ति दुष्टद्रव्योंसे होती है अर्थात् विषमस्थितिमें रहनेवाले धातु दुष्टद्रव्य या दोष कहलाते हैं । दोषद्रव्योंका गुणकर्म धातुत्रों से बिलकुल भिन्न स्वरूपका हैं | ये दोषद्रव्य अर्थात् विषमस्थितीके वात, पित्त, कफदोष रोगके कारण દાંતે | धातुवोंका जिस प्रकार स्थूल, सूक्ष्म व अतिसूक्ष्म भेद होता है उसीप्रकार दोषों का भी होता है । धातुवोंके कारणसे जिस प्रकार शरीर व मानसिक व्यापार में सुस्थिति बनी रहती है, उसी प्रकार दोषोंसे शरीर व मानसिक व्यापार में बिगाड उत्पन्न होती है। वायु - रूक्ष, लघु, शीत, खर, सूक्ष्म व चल; पित्त - सस्नेह, तीक्ष्ण, उष्ण, सर व द्रव; और कफ - स्थिर, स्निग्ध, श्लक्ष्ण, मृत्स्न, शीत, गुरु, व मंद गुणयुक्त है । पित्तकफ द्रवरूप और वायु अमूर्त है । ज्ञेय है । दोषोंका अतिसंचय होनेपर वे मलरूप होते हैं । इसी प्रकार शरीरके व्यापारकेलिए निरुपयोगी व शरीरको मलिन बनाकर कष्ट देनेवाले द्रव्यों को भी मल कहते हैं । जो मल कुछ काल पर्यंत शरीर के लिए उपयुक्त अर्थात् संधारण कार्य के लिए उपयुक्त रहते हैं, उनको मलधातु कहते हैं । मलका भी स्थूलमल ( पुरीष, मूत्र, स्वेद, वगैरे ) व अत्यंत सूक्ष्ममल (मलानामतिसूक्ष्माणां दुर्लक्ष्यं लक्षयेत्क्षयम् ) इस प्रकार दो भेद है । मथितार्थ यह हुआ कि शरीरसंधारण करनेवाले धातु ( धारणाद्धातवः ) शरीरको दूषित करनेवाले दोष, (दूषणादोषाः ) व शरारको मलिन करनेवाले मल ( मलिनीकरणान्मलाः ) इसप्रकार तीन द्रव्योंसे शरीर बना हुआ है । इसलिये कहा है कि दोषधातुमलमूलं हि शरीरम् । धातु के समान दोष भी शरीर में रहते ही हैं । वे अत्यंत सन्निध वास करते हैं । शरीर क्षणभर भी व्यापाररहित नहीं रह सकता है । निद्रावस्था में भी शरीरव्यापार चालू ही रहता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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