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कथाकोश की प्रादर्श प्रति
श्रीचन्द्र कृत अपभ्रंश कथाकोष का प्रस्तुत संस्करण केवल एक मात्र प्रति के आधार से तैयार किया गया है। यह प्रति कारंजा (जिला प्राकोला, महाराष्ट्र राज्य) के सेनगण भण्डार की है। यह प्रति मेरे हाथ में उक्त भण्डार के स्वामी श्री वीरसेन भट्टारक की कृपा से उस समय प्रायी थी जब मैं सन् १९२३ के ग्रीष्म अवकाश में वहां संस्कृत-प्राकृत हस्तलिखित ग्रंथों की सूची तैयार करने गया था। यह सूची 'कैटेलाग प्राफ संस्कृत एण्ड प्राकृत मैनुस्क्रिप्ट्स इन सी० पी० एन्ड बरार' नाम से मध्यप्रदेश शासन द्वारा सन् १९२६ में प्रकाशित की गयी। उस सूची में मैंने इस पंथ का कुछ परिचय और परिशिष्ट में कुछ अवतरण भी दिये। तब से इस रचना का जो भी परिचय कहीं भी अब तक प्रकाशित हुआ है, वह केवल उसी एक सूची के आधार से अथवा उक्त प्रति के अवलोकन से।*
तबसे बहुत प्रयास करने पर भी इस रचना की कोई अन्य प्राचीन प्रति प्राप्त न हो सकी। ग्रंथ का कागज जीर्ण होकर फटने लगा था। इसलिये उसका जीर्णोद्धार नेशनल पारकाइन्स, दिल्ली में कराना पड़ा। मेरी अभी भी इच्छा नहीं थी कि इस विशाल ग्रंथ का सम्पावन केवल एक मात्र प्रति पर से किया जाय। किन्तु प्रिय सुहृद् डा० प्रा० ने० उपाध्ये ने अब और अधिक किसी अन्य प्रति के प्रकाश में आने की बाट जोहना उचित नहीं समझा और मुझे इस कार्य को तत्काल हाथ में लेने के लिये प्रेरित किया। सौभाग्य से उपलभ्य प्रति बहुत कुछ शुद्ध है और उसकी कथायें प्रायः वे ही हैं जो उपाध्ये द्वारा संपादित संस्कृत बृहत्कथाकोश में आ चुकी हैं। अनेक अपभ्रंश
ग्रंथों के सम्पादन से इस भाषा की प्रकृति, शब्दावली और काव्यशैली का जो अनुभव प्राप्त हो चका - है उसके आधार से पाठ-संशोधन और कहीं-कहीं स्खलित अंशों के पादपुरण में मुझे विशेष कठिनाई नहीं हुई।
- इस प्रति को एक विशेषता ने प्रस्तुत संस्करण को तो प्रभावित किया ही है, किन्तु साथ ही अपभ्रंश ग्रंथों के सम्पादन को एक नया मोड़ भी दिया है । अपभ्रंश रचनाओं की प्राचीन प्रतियों में न और ण का प्रयोग प्रायः अनियमित रूप से पाया जाता है। इस कारण अभी तक के प्रकाशित अपभ्रंश ग्रंथों के सम्पादकों ने प्राकृत वैयाकरण वररुचि के उस नियम का पूर्ण रीति से परिपालन किया है जिसके अनुसार संस्कृत न का प्राकृत में सर्वत्र ण प्रादेश होता है (नो णः सर्वत्र २, ४२) । मैंने भी अपने समस्त पूर्व सम्पादित ग्रंथों में इसी नियम का अनुसरण किया है। तदनुसार प्रस्तुत ग्रंथ की प्रेस कापी में भी मैंने कोई ८-१० संधियों में मिरपवाद रूप से न के
__ * (१) अपभ्रंश लिटरेचर : ही० ला० जैन ( अलाहाबाद यूनीवर्सिटी जरनल, प्रथम भाग,
१९२५ )। (२) अपभ्रंश भाषा और साहित्य : ही० ला० जैन (नागरी प्रचारिणी पत्रिका,
भा. १४, अं.१-४। (३) अपभ्रंश साहित्य : हरिवंश कोछड़ । (४) हरिषेण कृत कथाकोश की प्रस्तावना : प्रा० ने० उपाध्ये ।
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