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( २७ ) कथा-सूची संधि-१
कडवक
१. जिनेन्द्र को नमस्कार करके श्रीचन्द्र कवि का संसार की क्षणभंगुरता संबंधी
चिन्तन । २. धन की सार्थकता-पात्रदान । ३. मनुष्य भव की तथा शुद्ध देश, वंश, निरोगत्व, सत्संग व संबोधन की दुर्लभता । ४. पूर्वाक्त गुणों को पाकर तप, ध्यान व अध्ययन द्वारा मोक्ष के चिन्तन का उपदेश । ५. स्वाध्याय से लाभ व चित्त के वशीकरण द्वारा श्रेष्ठ वाणी से देव, शास्त्र, गुरु व
धर्म विषयक काव्य-रचमा का उपदेश । ६. ग्रंथकार का साधन-विहीनता संबंधी विनय-प्रकाशन व धर्म में दृढ़ भक्ति होते
हुए भी कथाकोश-रचना की शक्ति में संशय । ७. तथापि पूर्व महर्षियों व सत्कवियों की रचनाओं के आधार से कथाकोश रचना
का संकल्प । ८. कथाकोश की पूर्वपरम्परा में मूलाराधना का स्थान व उसी की गाथाओं के
आधार में प्रस्तुत रचना की सूचना। ६. भगवती आराधना की प्रथम और द्वितीय गाथाओं का उद्धरण, उनकी व्याख्या,
उद्योतनादि भेद तथा लौकिक उद्योतन का दृष्टान्त-भरत चक्रवर्ती की विभूति । लोकोत्तर उद्योतन का दृष्टान्त-मोक्षगामी साधु । लौकिक उद्यमन का दृष्टान्त-जितशत्रु का उद्यान । लोकोत्तर उद्यमन का दृष्टान्त-मुनिचर्या द्वारा सिद्धि, लौकिक निर्वहन का दृष्टान्तसुखी नर । लोकोत्तर निर्वहन का दृष्टान्त-संयमी मुनि द्वारा प्राप्त सिद्धि का सुख । लौकिक सिद्धि का दृष्टान्त-पाहारादि सामग्री का सुख-भोग । लोकोत्तर सिद्धि-दर्शन ज्ञानादि द्वारा मोक्षसुख । लौकिक साधन-रावण का विद्या-सिद्धि साधन का सुख । लोकोत्तर साधन-रत्नत्रय रूपी विद्यासाधन द्वारा मोक्ष-सुख । लौकिक निस्तरणऋषभदत्त द्वारा वाणिज्य से अर्जित धन का सुख । लोकोत्तर निस्तरण सम्यक्त्व रूपी रत्न द्वारा मोक्षसुख । माराधना कार्य में परिकर्म की आवश्यकता। उदाहरण, शस्त्राभ्यास-हीन जिनदत्त का पराभव।
शस्त्राभ्यास-सम्पन्न सूरदत्त की विजय । १७. सूरदत्त की विजय से लक्ष्मी और प्रशंसा की तथा मुनिदीक्षा द्वारा मोक्ष की प्राप्ति । १८. योग के अनम्यासी का मरणकाल में पाराधक होना स्थाणु-निधि के लाभ के
समान है-कथानक-मूखं साधु सोमशर्मा ने ज्ञान-सम्पादन से निराश हो समाधि मरण का विचार किया।
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