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( ३६ ) २०. अर्थहीन कथा । कौशल नरेश वसुपाल का उज्जयिनो नरेश वीरदत्त पर
आक्रमण । वसुपाल का रानी को पत्र जो इस प्रकार पढ़ा गया कि राजपुत्र के उपाध्याय को शालि-भात, घृत और मसि (काजल) खिलाया जाय । वैसा ही किया गया। राजा के लौटने पर उपाध्याय की शिकायत । वाचक ने मषि का अर्थ दाल न करके कज्जल किया इस कारण उसे दण्ड । व्यंजन-अर्थहीन कथा । हस्तिनापुर के राजा पद्म का पोदनपुर के राजा हरिनाग पर आक्रमण । सहस्त्र स्तंभ मंदिर देखकर वैसा ही अपनी राजधानी में बनवाने की इच्छा से वहां के नागरिकों को स्तंभ संग्रह करने के लिये पत्र प्रेषित । वाचक ने स्तंभ का अर्थ बकरा (स्तंभ) बतलाया व तदनुसार सहस्त्रों बकरे
एकत्र किये गये। २३. राजा के लौटने पर वाचक को दण्ड । २४. व्यंजन-अर्थ उभय शुद्धि कथा । सोरठ देश, गिरिनगर पट्टन, धर्मसेन नरेश,
धरसेन महामुनि चन्द्र गुफा-निवासी । दो वृषभों का स्वप्न । दक्षिण देश से
दो साधुओं का आगमन-भूतबली और पुप्पदन्त । २५. प्रागत साधुओं द्वारा सिद्धांत की वाचना की प्रार्णना। मुनि द्वारा हीनाक्षर
अधिकाक्षर मंत्रों द्वारा परीक्षा । छंदयोजना द्वारा शुद्ध किये गये मंत्रों से सिद्धि ।
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संधि-७
कडवक
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१. एकत्व क्षायना पर नागदत्त मुनि कथा । उज्जयिनी के राजा प्रजापाल । दो पुत्र
प्रियधर्म और प्रियशर्म । दमवर मुनि से दोनों की मुनि दीक्षा, स्वर्गवास, अगले जन्म में परस्पर सम्बोधन की प्रतिज्ञा। लघुभ्राता का उच्जयिनी के राजा अभिधर्म की पत्नी नागदत्ता के उदर से जन्म । नाम नागदत्त । नागदत्त की बहिन नागश्री का वत्स देश में कौशाम्बी नगर के राजा जिनदत्त से विवाह । ज्येष्ठ भ्राता द्वारा नागदत्त की अधार्मिक प्रवृत्ति जानकर संबो
धनार्थ सपेरे के छद्वेश में आगमन । नागदत्त द्वारा सर्पो से खेलने की स्वीकृति । ३. राजा के समक्ष सभा में सर्प का खेल । नागदत्त की सर्पविष से मूर्छा व मरण । ४. जिनदीक्षा के शपथ-बंध पर सपेरे द्वारा नागदत्त का पुनर्जीवन और तपग्रहण ।
ज्येष्ठ भ्राता द्वारा पूर्व-स्मरण व जिनकल्प ग्रहण । ५. नागदत्त का बिहार । पूर्व से आते हुए सीमावर्ती सूरदत्त राजा द्वारा विरोध व
भिल्ल राज द्वारा मुक्ति । दूसरी ओर से माता और यहिन का कोशाम्बी की ओर आगमन । मुनि ने भय की बात न कही । चोरों द्वारा उनका पकड़ा
जाना। रात्रि में सूरदत्त की अपने सुभटों में गोष्ठी। ६. नागदत्त मुनि ने भय की बात जानते हुए उसे कुछ न बतलाया और लुटवा व
बन्दी बनवा दिया। इस पर माता का रोष व उदर-विदारण की तत्परता ।
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