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सम्पादन में भी प्रायः इसी नियम का पालन किया गया है। प्राकृत के अन्य काव्यों, जैसे गाहासत्तसई सेतुबंध गा गडउवहो, लीलावई, कंसवहो आदि में वररुचि के 'प्राकृत-प्रकाश' के नियमानुसार सभी स्थितियों में 'न' के स्थान पर 'ण' का प्रयोग किया गया है ।
अपभ्रंश भाषा के प्रन्थों का सम्पादन अपेक्षा कृत बहुत माधुनिक है, और प्रायः इस भाषा के जितने ग्रन्थ अभी तक सुसम्पादित होकर प्रकाशित हुए हैं उनमें एकाधिक हस्तलिखित प्रतियों का उपयोग किया गया है। उन प्रतियों में 'न' और 'ण' ध्वनियों के प्रयोग में जो अनियमितता दृष्टिगोचर हुई है, उसका उल्लेख प्रायः सभी सम्पादकों ने किया है। सर्व प्रथम डा0 हरमन याकोबी ने भविसयत्त-कहा तथा सणकुमार-चरिउ का सम्पादन किया था। उन्होंने अपने लिए यह नियम बनाया कि जब 'न' शब्द के मध्य में प्रावे, तब यदि मूल संस्कृत शब्द में 'ण' नहीं है तो उसे दन्त्य ही रहने दिया जावे। किन्तु यदि संस्कृत में 'ण' हो तो उसके स्थान पर मूर्द्धन्य अनुनासिक ही रखा जावे, जैसे कन्या-कन्ना तथा कर्ण-कण्ण । उनके द्वारा सम्पादित 'सणकुमार चरिउ' (मुन्चेन, जर्मनी १९२१) को शब्द-सूची में लगभग १६८ शब्द 'नादि' हैं और 'णादि' केवल एक 'णु' (ननु) ही तीन-चार बार आया है।
डा० पाल्सडॉर्फ द्वारा सम्पादित कुमारपाल प्रतिबोध (हम्बुर्ग सन् १९२८ ई.) की शब्दानुक्रमणिका में लगभग डेढ़ सौ शब्द 'नादि' हैं तथा 'णादि' केवल दो शब्द मेरी दृष्टि में प्राये, णइ और ण्हाण । यह स्थिति उनके द्वारा सम्पादित हरिवंस पुराणु (हम्बुर्ग सन् १९३६) में उलट गयो, क्योंकि इसकी शब्द-सूची में केवल नृ व नृव शब्द ही 'नादि' हैं; शेष सभी शब्द 'णादि' पाये जाते हैं।
डा० गुणे ने 'भविसयत्तकहा' का प्रकाशन १९२३ ई० में कराया । उसकी प्रस्तावना में उन्होंने शब्द के प्रारम्भ में तथा मध्य में द्वित्व रूप से 'न' ध्वनि को सुरक्षित रखने की प्रणाली को प्रर्द्ध-मागधी प्रवृत्ति कहा है, अपभ्रंश भाषा की कोई विशेषता नहीं। उनका मत है कि अपभ्रंश ग्रन्थों में 'न' और 'ण' का प्रयोग अनियमित विकल्प रूप से प्राता है, जैसे 'न' आदि नयर, नराह, नेउर, अन्न, मन्नइ इत्यादि; तथा णिहणु, णउ, प्राणहि, णिज्जावय, समण्णुण्ण, णिभिणइँ इत्यादि । प्रतिएव इनमें मिसी नियम की कल्पना करना व्यर्थ है।
डा०प० ल० वैद्य ने पुष्पदन्त कृत 'जसहर-चरिउ (कारंजा जैन ग्रन्थमाला १९३१ ई०) तथा महापुराण (मा० दि० जैन प्रन्थ. १९३७ ई० प्रादि) में निरपवाद रूप से सर्वत्र केवल 'ण' का ही प्रयोग किया है। और ईसी प्रवृत्ति का पालन डा० प्रा० ने० उपाध्ये ने योगीन्द्रदेव कृत परमात्मप्रकाश एवं योगसार (रा० जैन शास्त्र० बम्बई १९३७ ई०) में तथा डा० ह० व० भयाणी ने स्वयम्भू कृत पउमचरिउ (भाग १-३, सिंधी जैन ग्रन्थ० भा० वि० भ० बम्बई सन् १९५३ ई० प्रादि) के सम्पादन में किया है। प्रस्तुत सम्पादक ने भी णायकुमारचरिउ सावय-धम्मदोहा, पाहुडदोहा, करकंडचरिउ, सुदंसणचरिउ, मयणपराजयचरिउ एवं सुगंधदशमी-कथा इन ग्रन्थों के सम्पादन में इसी नियम को निरपवाद रूप से स्वीकार किया है। किन्तु यहाँ यह बात ध्यान देने योग्य है कि डा० वैद्य ने अपने हेमचन्द्र प्राकृत व्याकरण के संस्करणों (पूना १९२८ ई० तथा १९३६ ई०) की शब्द-सूची में 'नादि' लगभग २०० शब्दों को दिया है जिनमें ५० से अधिक अपभ्रंश शब्द हैं, एवं 'णादि' शब्दों की संख्या लगभग १०० हैं जिनमें अपभ्रंश के केवल णं, णवि,
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