Book Title: Kadve Such Author(s): Suvandyasagar Publisher: Atmanandi Granthalaya View full book textPage 9
________________ १. आमुख मंगलाचरण श्री सन्मति को नमन कर पाया सन्मति लाभ । सन्मति - सुविधि संगम ही है सुवन्ध पद राज || १ || कड़वे सच कड़वे सही, किन्तु श्रीफल समान । विचार कर जानों यही, जैन धर्म की शान ||२|| शाश्वत धर्म शाश्वत धर्म में यत्किंचित् भी बदलाव संभव नहीं है क्योंकि नियमों में बदलाव आंशिक सत्यता का निदर्शक होता है । सच्चा धर्म कभी आंशिक सत्य नहीं होता है । श्रमण धर्म सर्वांश एवं सार्वकालिक सत्य है । इस अवसर्पिणी के तृतीय काल में प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव ने मुनियों को जिन २८ मूलगुणों का पालन करने का उपदेश दिया था वे ही २८ मूलगुण उसी रूप में पंचम काल के अन्त में होनेवाले अन्तिम असम्प्राप्तासृपाटिका संहननधारी वीरांगज मुनि के समय भी होंगे। अतः पंचम काल अथवा परिस्थिति की आड़ लेकर मूलगुणों में अथवा मुनिचर्या में परिवर्तन अथवा संशोधन करने का विचार भी जैन धर्म से द्रोह करना है। बीसवी सदी में अनेक संमोहक शोध हुए, जिससे पंचेन्द्रियों को लुभानेवाली भौतिक सामग्री प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होने लगी । सहजता से उपलब्ध होनेवाली इस भौतिक सामग्री ने मनुष्यों को आमोद-प्रिय तथा विलासी बना दिया। संसारी जीवों को भोगसामग्री का आकर्षण सदा ही रहा है किन्तु जैन मुनि उससे सदा अलिप्त ही रहे हैं। अगण्य राजाओं और अनेक चक्रवर्तियों ने भी अपनी विशाल राज्यसम्पदा को जीर्ण तृणवत् समझकर सहजता से समस्त वैभव एवं सुख-साधनों का त्याग कर अकिंचन मुनिदीक्षा ग्रहण कर आत्मकल्याण किया है। आज अनेकानेक विद्वान् तथा त्यागी-व्रती और मुनि भी गहन आगमावगाहन किये बिना दिग्भ्रमित हो रहे हैं, उनके भ्रम मिटाना ही वर्तमान में सबसे बड़ा उपकार है । कड़वे सच १ भूल कहाँ ? दिगंबर जैन मुनि वस्त्र, कुटुम्ब - परिवार व सम्पूर्ण परिग्रह के त्यागी होते हैं । (आध्यात्मिक धर्म प्रवचन- पृष्ठ ९५ ) इतने बड़े-बड़े तीर्थंकरचक्रवर्ती अपना सारा धन, वैभव, कुटुम्ब-परिवार छोड़ कर आ गये, फिर उस ओर नहीं देखा, घर का समाचार नहीं पूछा । (पृष्ठ ११० ) सांसारिक आकांक्षा जहाँ पर समाप्त होती है वही से संन्यास प्रारंभ होता है । इसलिए समस्त सांसारिक कार्यों और भोगों से विरक्त होकर ही संयम धारण किया जाता है। तथा शास्त्रों के अनुसार ही उसका यावज्जीवन पालन किया जाता है । अपनी इच्छानुसार धर्म और शास्त्रों में परिवर्तन करनेवाला साधु नहीं, असाधु होता है । सन्त तो वह ही है जो शास्त्रों के अनुसार आचरण करे और उपदेश दे। परन्तु खेद है कि विलासप्रिय सामान्य जनों की संगति में आने से वर्तमान साधुजन भी संगति के कुप्रभाव से सुरक्षित नहीं रह पाये । गृहस्थों से मेल-जोल बढ़ानेवाले साधुओं के आचार-विचारों में अद्भुत विपरीतता का अविर्भाव हो गया है । त्यक्तसंसारी कहे जानेवाले साधुओं के मन में संयम के प्रति अनुराग एवं दृढ़ता दिखना अब दुर्लभ हो गया है। दूसरी ओर कई लोग, जो यह चाहते हैं कि साधुओं के माध्यम से हमें यश, ख्याति, पूजा, लाभ आदि मिल जाय, वे साधुओं का दुरुपयोग कर रहे हैं। ऐसे ही स्वार्थ से मूढ़ चन्द लोगों ने साधुओं को भी परिग्रही तथा लौकिक कार्यों में अनुरक्त बनाकर अपने स्वार्थ के लिये समाज के सामने प्रस्तुत किया । नॅपकीन, मोबाईल, कम्प्युटर, मोटर आदि सहित सग्रन्थ रूप में तथा दिनरात हँसी करते हुए साधुवेषधारियों को नित्य देखते-देखते अज्ञानी लोग उन्हें ही अपना आराध्य समझने की बहुत बड़ी भूल कर बैठे हैं। ठीक ही है ! अज्ञानी और चारित्रहीन को अज्ञानी ही गुरु मानते हैं। परन्तु उन्हें इस बात पर गौर करना चाहिए कि - बाह्य और अभ्यन्तर परिग्रह से घिरे हुए कुगुरुओं को नमस्कार आदि करना गुरुमूढ़ता है । ( कार्त्तिकेयानुप्रेक्षा (टीका) - ३२६, पृष्ठ २३१ ) इसलिए वह व्यक्ति मूढ़ है जो (निर्ग्रन्थ अर्थात् अपरिग्रही) कड़वे सच २Page Navigation
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