Book Title: Kadve Such
Author(s): Suvandyasagar
Publisher: Atmanandi Granthalaya

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Page 42
________________ ततो विराध्य सन्मार्ग विशन्ति नरकोदरे ||४ / ५७।। अर्थात् - जैसे कोई अपनी माताको वेश्या बनाकर उससे धनोपार्जन करते हैं, वैसे ही जो मुनि होकर उस मुनिदीक्षाको जीवनका उपाय बनाते हैं और उसके द्वारा धनोपार्जन करते हैं वे अतिशय निर्दय तथा निर्लज्ज हैं। जो निर्लज्ज लोग साधुपनमें भी अतिशय निन्दायोग्य कार्य करते हैं वे समीचीन मार्गकी विराधना करके नरकमें प्रवेश करते हैं। - मुनि पुलकसागर के अनुसार भी “दुनिया का सबसे बड़ा पाप महावीर की नजरों में, धन का संग्रह करना है।" (ऐसे भी जिया जाता है पृष्ठ ४७ ) अत: आ. सुविधिसागर उपदेश देते हैं- हे मुने ! दुर्लभ से दुर्लभ चारित्ररत्न की प्राप्ति तुम्हें हुई है। उसको प्राप्त करके अर्थलाभ के लोभ में उसे व्यर्थ मत करो। (सज्जनचित्तवल्लभ पृष्ठ ४१) पुन: दान तो प्रत्युपकार की अपेक्षा से रहित होता है। 'इस धन के बदले में अमुक साधु का मेरे यहाँ आहार हो यह तो दान नहीं सौदा ही है ।' तथा साधु को भी चाहिए की वह धनी और निर्धन आदि के घरों का विचार-भेदभाव न करे । (मूलाचार (पूर्वार्ध) - पृष्ठ २६६) - अतः साधु संतनिवास निर्माण, क्षेत्रविकास आदि कार्यो के लिए भी विशिष्ट व्यक्ति के यहाँ आहार नहीं कर सकते। इस विषय में आचार्य शान्तिसागर महाराज का जीवन स्मरणीय है। उन्होंने कहा, "हमने आगम के विपरीत आचरण नहीं किया। मुनिपद की बात तो दूसरी, क्षुल्लक व्रत लेने पर हमने उपाध्याय (पंचायत / आहार समिति) द्वारा पूर्वनिश्चित घर में आहार नहीं किया । " ( चारित्र चक्रवर्ती - पृष्ठ ३४६) क्योंकि जैन साधु किसी भी व्यक्ति का निमन्त्रण या भोजन पहले से नियत करके ग्रहण नहीं करते । (दिगम्बर मुनि - पृष्ठ २१) (मुनि - आर्यिका तो दूर, ) ऐलक, क्षुल्लक ये (भी) निमंत्रण देने पर श्रावक के घर आहार हेतु नहीं जाते हैं। (कौन कैसे किसे क्या दे ? - पृष्ठ ३६) ??? कड़वे सच ६७ क्षुल्लक जीवन में परम्परा वश अपार विघ्न महाराज बचपन से ही महान् स्वाध्यायशील व्यक्ति थे । वे सर्वदा शास्त्रों का चिंतन किया करते थे। विशेष स्मृति के धनी होने के कारण पूर्वापर विचार कर वे शास्त्र के मर्म को बिना सहायक के स्वयं समझ जाते थे। इसलिए उन्हें प्रचलित सदाचार की प्रवृत्ति में पायी जाने वाली त्रुटियों का धीरे-धीरे शास्त्रों के प्रकाश में परिज्ञान होता था । एक दिन महाराज ने कहा था- “हमने सोचा कि उपाध्याय के द्वारा पूर्व में निश्चय किये घर में जाकर भोजन करना योग्य नही है, इसलिये हमने वैसा आहार नहीं लिया, इससे हमारे मार्ग में अपरिमित कष्ट आये। लोगों को इस बात का पता नहीं था कि बिना पूर्व निश्चय के त्यागी लोग आहार के लिये निकलते हैं, इसलिये दातार गृहस्थ को अपने यहाँ (अपने घर के सामने) आहार दान के लिये पड़गाहना चाहिये ।" उस समय की प्रणाली के अनुसार ही लोग आहार की व्यवस्था किया करते थे । यह बात महाराज को आगम के विपरीत दिखी। अतएव उन्होंने किसी का भी ध्यान न कर उसी घर में आहार लेने की प्रतिज्ञा की, जहाँ शास्त्रानुसार आहार प्राप्त होगा। उस समय के मुनि लोग भी कहने लगे कि ऐसा करने से काम नहीं होगा। ये पंचम काल है। इसे देखकर ही आचरण करना चाहिए। ऐसी बात सुनकर आगम भक्त महाराज कहा करते थे, “यदि शास्त्रानुसार जीवन नहीं बनेगा, तो हम उपवास करते हुए समाधिमरण को ग्रहण करेंगे, किन्तु आगम की आज्ञा का उल्लंघन नहीं करेंगे। " उस समय की परिस्थिति ऐसी ही बिकट थी, जैसी कि हम पुराणों में, आदिनाथ भगवान के समय में विद्यमान पढते हैं। जहाँ श्रावकों को अपने कर्तव्य का ज्ञान नहीं है, जानकार उपाध्याय लालच वश विघ्नकारी बन रहे हैं तथा बड़े-बड़े मुनि कालदोष के नाम पर शास्त्र की आज्ञा को भुला रहे हैं, वहाँ हमारा भविष्य का जीवन कैसे चलेगा, इस बात की महाराज को तनिक भी चिन्ता नहीं कड़वे सच ६८

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