Book Title: Kadve Such
Author(s): Suvandyasagar
Publisher: Atmanandi Granthalaya

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Page 47
________________ (प्रज्ञा प्रवाह - पृष्ठ १२७) ऐसे आत्मघाती समाज सेवक साधुओं को आ.क. विवेकसागरकृत संबोधन का विचार करना चाहिये - अरे ! तुमने घर छोड़ा, परिवार छोड़ा, किस लिये? आत्मकल्याण के लिये ! तो आत्मकल्याण करो । क्यों प्रपंचों में फंसते हो ? ...स्व में रमण कर । पर में भटकेगा तो संसार अटवी में अटक जायेगा । (मूलाचार प्रदीप - प्रस्तावना पृष्ठ १२-१३) इसलिए जैन मुनि ने साधनापथ में प्रवेश के पूर्व ही स्त्री, मित्र, पुत्र, दकान, मकान, बाह्य आडंबर का परित्याग कर दिया । क्योंकि ये सब साधना की विराधना करते हैं । साधनापथ के बाधक तत्त्व हैं । (सुनहरा अवसर - पृष्ठ २७) क्षत्रचूडामणि में कहा है-जैनी तपस्या स्वेच्छाचार की विरोधी है। (२/१५) श्रमण संस्कृतिमें जगत् को नहीं सम्हाला जाता है। श्रमण संस्कृतिमें मात्र अपने आपको सम्हाला जाता है। (इष्टोपदेश-सर्वोदयी देशना - पृष्ठ अर्थात् - जो मुनि लौकिक कार्योंसे उदासीन रहता है वह कर्मक्षय रूप आत्मकार्य में सावधान रहता है और जो लौकिक कार्योंमें जागरूक है वह आत्म-कार्य में उदासीन रहता है। इय जाणिउण जोई ववहारं चयइ सव्वहा सव्वं । झायड़ परमप्पाणं जह भणियं जिणवरिंदेण ||मोक्षपाहड ३२।। अर्थात् - ऐसा जानकर योगी सब तरह से सब प्रकार के व्यवहार को छोडता है और जिनेन्द्र देवने जैसा कहा है उस प्रकार परमात्मा का ध्यान करता है। (पृष्ठ ५९५) ____ जनसेवा आदि लौकिक कार्यों से लोकप्रियता प्राप्त कर लेना अलग बात है और तत्त्वज्ञ एवं चारित्रवान बनकर मोक्षमार्गी हो जाना अलग बात है । आत्मार्थी, मोक्षमार्गी का लौकिक यश-प्रतिष्ठा से कुछ भी संबंध नहीं है। क्षेत्रनिर्माण, स्कूल-कॉलेज बनवाना, समाजसेवा, स्टीकर, फोटो, पत्रिकाएँ और फ्लेक्स छपवाना आदि कार्यों से प्रसिद्धि पाने के लिए आत्मकल्याण को दुय्यम स्थान देनेवाले साधु को आ. कुन्दकुन्द समझाते हैं - खाई-पूया-लाह, सक्काराई किमिच्छसे जोई । इच्छसि जइ परलोयं, तेहिं किं तुज्झ परलोयं ।।१२२।। अर्थात् - हे योगी! तू परलोक सुधारने की इच्छा करता है तो ख्यातिपूजा-लाभ-सत्कार आदि की इच्छा क्यों करता है? क्या इस प्रकार ख्याति-पूजा-लाभ-सत्कार की भावना करते हुए तेरा परलोक सुधरेगा? नहीं, इससे परलोक बिगड़ेगा ही। (रयणसार - पृष्ठ ९२) गणिनी आर्यिका ज्ञानमती कृत नियमसार टीका में कहा है - जो कोई मुनि ख्याति, लाभ, पूजा आदि की अपेक्षा रखते हुए, सतत सभी लोगों को खुश करने वाली प्रवृत्ति के इच्छुक होकर, अपनी आत्मा की उपेक्षा करके ध्यान का अभ्यास नहीं करते हैं वे द्रव्यलिंगी बहिरात्मा ही होते हैं। (पृष्ठ ४३८-४३९) आ. देवनन्दि के शब्दों में - ममता की पतवार न छोड़ी, आखिर दम ही तोड़ दिया । मुक्तिपथ के राही तूने, मंजिल से मुख मोड़ दिया ॥ कड़वे सच ..................... ७७. २५) मोक्षमार्ग भवनों, वाहनों और बहानों का नहीं है, सुखसुविधाओं और भोगों का भी नहीं है, अपितु इन सबके त्याग का मार्ग है। यदि हम इस पर दृढ़ नहीं रहे तो कही आगामी पीढ़ी यह न समझने लगे कि मन्दिर, क्षेत्र और धर्मशाला आदि का निर्माण करना ही साधुओं का कार्य है। पीछी के साथ नहीं... सन १९९९ के इन्दौर वर्षायोग के समापनपर आ. विद्यासागरक़त प्रवचन मननीय है - क्षेत्रोंका जीर्णोद्धार, रक्षा, नवनिर्माण आदिके लिए आवश्यकता होती है। यह सब पीछीके साथ न कीजिए। ...परिग्रह के साथ जो धर्म की प्रभावना करना चाहते हैं, वे घर में रह करके करें, किन्तु हाथ में पीछी लेकर और परिग्रह रखकर चले वह पीछी की शोभा नहीं है। ... ध्यान रखो, जो व्यक्ति परिग्रह और आरंभ का समर्थन करेगा, जैन शासन में उसे श्रमण कहलाने का अधिकार नहीं है। (इन्दौर चातुर्मास स्मारिका-१९९९, पृष्ठ ७१,७५) क्योंकि कड़वे सच ....................... ७८

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